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उत्तराखण्ड विशेष तथ्य

देवभूमि दर्शन

मकर सक्रांति पर कुमाऊं में घुघुतिया त्यौहार और गढ़वाल में गिंदी मेले का आगाज, जानिए महत्व

Ghugutiya Festival : मकर सक्रांति पर उत्तराखंड में घुघुतिया त्यौहार का विशेष महत्व, जानिए कुमाऊं मंडल और गढ़वाल मंडल में इस पर्व को मनाने की विधि

भारतवर्ष को त्योहारों का देश कहा जाता है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना रखने वाले इस देश में न जाने कितने त्योहार मनाये जातें हैं। और हिंदू महीनों के पहले दिन, (जिसे संक्रांति कहा जाता है), से ही इसकी शुरुआत हो जाती है। कल से शुरू होने वाला माघ मास, हिन्दूओं के पवित्र महीनों में से एक है, और इस माघ महीने की संक्रांति को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। इस दिन को भारत के साथ ही नेपाल में भी एक प्रमुख पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व को भारत तथा नेपाल में फसल कटाई के रूप में मनाया जाता है। जहां भारत में विभिन्न स्थानों में इसे विभिन्न नामों संक्रांति, मकर संक्रांति, पोंगल, माघी, खिचड़ी संक्रांति आदि नामों से जाना जाता है। वहीं गुजरात के साथ-साथ उत्तराखंड में इसे उत्तरायण के नाम से पुकारा जाता है। कहते हैं इस दिन से सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर चला जाता है, इसलिए इसे उत्तरायण कहा जाता है। सूर्य के उत्तरायण होने को देव पक्ष (देवी-देवताओं का दिन) की संज्ञा दी जाती है तो दक्षिणायन होने को पितृपक्ष(देवी-देवताओं की रात्रि) कहा जाता है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। देवभूमि उत्तराखंड में इसे उत्तरायण के साथ-साथ अनेकानेक नामों से इस पर्व को मनाया जाता है। जहां कुमाऊं में इसे उत्तरायण के साथ-साथ घुघुतिया, गढ़वाल मंडल में इसे पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरह खिचड़ी संक्रांति के नाम से इस पर्व को मनाया जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों के साथ-साथ राज्य में भी इस दिन विभिन्न स्थानों पर मेलों का आयोजन होता है। जिनमें से कुमाऊं के बागेश्वर जिले में सरयू-गोमती नदियों के संगम पर लगने वाला उत्तरायणी मेला प्रसिद्ध है वही इस दिन पोड़ी गढ़वाल में भी सुप्रसिद्ध गिंदी कोथिग का आयोजन किया जाता है। (Ghugutiya Festival)




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कुमाऊं मंडल में मनाया जाता है घुघुतिया का त्योहार:
मकर संक्रांति (उत्तरायण) के दिन कुमाऊं मंडल में घुघुतिया का प्रसिद्ध त्योहार मनाया जाता है। यह एकमात्र ऐसा त्योहार है, जो कि लगभग एक ही तारीख (14-15) को आता है, वास्तव में यह त्योहार सोलर कैलेंडर का पालन करता है। कुमाऊं मंडल में यह त्योहार अलग-अलग तिथियों में मनाया जाता है। जहां रामगंगा पार के पिथौरागढ़ एवं बागेश्वर जिलों में पौष मास के अंतिम दिन (मासान्त) अर्थात मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को पकवान के रूप में घुघुते बनाए जाते हैं और मकर संक्रांति को (माघ मास के पहले दिन) को कोओं को खिलाएं जाते हैं तो वहीं रामगंगा वार (शेष कुमाऊं) में मकर संक्रांति के दिन घुघुते बनाएं जाते हैं तथा माघ मास के दूसरे दिन (2 गते) कोवें को दिए जाते हैं। इस त्योहार की खास बात यह है कि इसमें बनने वाले घुघुते को कोवें को देने से पहले एक छोटा सा बच्चा भी नहीं खाता है। कुमाऊं में कोवें को पितरों का प्रतीक भी माना जाता है। शायद इसलिए भी घुघुते सबसे पहले कौओं को दिए जाते हैं। यह पर्व हमारी लोक संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विरासत हैं, जो हमें पक्षी प्रेमी एवं सहनशील भी बनाती है और यही इस त्योहार का प्रमुख संदेश भी हैं। वैसे कहीं-कहीं तथा बहुत कम संख्या में दिखाई देने वाले ये कोऐं इस दिन आसमान में छाए रहते हैं, जिन्हें समूहों में आसानी से देखा जा सकता है। इस दिन कोओं की कांव-कांव के साथ ही समूचा वातावरण छोटे-छोटे बच्चों के काले कोआ का-का की मधुर ध्वनि से गूंजायमान रहता है। छोटे-छोटे बच्चों के गलें में घुघुते की माला बहुत ही अच्छी लगती हैं, जिसे और सुन्दर बनाने के लिए विभिन्न आकार के पकवान बनाकर इस माला में घुघुते के साथ डाले जाते हैं।




इसलिए मनातें है, घुघुतिया का त्योहार:
जिस तरह देवभूमि उत्तराखंड में मनाये जाने वाले प्रत्येक त्योहार के साथ कोई न कोई रहस्य, किंवदंती या फिर लोककथा जुड़ी रहती है, उसी प्रकार घुघुतिया त्योहार को मनाएं जाने के पीछे भी बहुत सी कहानियां जुड़ी हुई है। इनमें से एक कहानी के अनुसार कुमाऊं में चन्द्र वंश के शासन के दौरान जब राजा कल्याण चंद कुमाऊं के राजा थे। कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण उनका महत्त्वाकांक्षी मंत्री सोचता था कि राजा के मरने के बाद राज्य उसे ही मिलेगा।  एक बार राजा कल्याण चंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ मंदिर के दर्शन के लिए गए और संतान प्राप्ति के लिए मनोकामना करी और कुछ समय बाद राजा कल्याण चंद को संतान का सुख प्राप्त हो गया , जिसका नाम “निर्भय चंद” पड़ा। राजा की पत्नी अपने पुत्र को प्यार से “घुघती” के नाम से पुकारा करती थी और अपने पुत्र के गले में “मोती की माला” बांधकर रखती थी | मोती की माला से निर्भय का विशेष लगाव हो गया था इसलिए उनका पुत्र जब कभी भी किसी वस्तु की हठ करता तो रानी अपने पुत्र निर्भय को यह कहती थी कि “हठ ना कर नहीं तो तेरी माला कौओ को दे दूंगी”।  उसको डराने के लिए रानी “काले कौआ काले घुघुती माला खाले” बोलकर डराती थी। ऐसा करने से कौऐ आ जाते थे और रानी कौओ को खाने के लिए कुछ दे दिया करती थी। धीरे धीरे निर्भय और कौओ की दोस्ती हो गयी। दूसरी तरफ मंत्री घुघुती(निर्भय) को मार कर राज पाठ हडपने की उम्मीद लगाये रहता था ताकि उसे राजगद्दी प्राप्त हो सके। एक दिन मंत्री ने अपने साथियो के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा। घुघुती (निर्भय) जब खेल रहा था तो मंत्री उसे चुप चाप उठा कर ले गया। जब मंत्री घुघुती (निर्भय) को जंगल की ओर ले जा रहा था तो एक कौए ने मंत्री और घुघुती (निर्भय) को देख लिया और जोर जोर से कॉव-कॉव करने लगा।  यह शोर सुनकर घुघुती रोने लगा और अपनी मोती की माला को निकालकर लहराने लगा। उस कौवे ने वह माला घुघुती(निर्भय) से छीन ली।




उस कौवे की आवाज़ को सुनकर उसके साथी कौवे भी इक्कठा हो गए एवम् मंत्री और उसके साथियो पर नुकली चोंचो से हमला कर दिया। हमले से घायल होकर मंत्री और उसके साथी मौका देख कर जंगल से भाग निकले।  वहीं दूसरी ओर राजमहल में सभी घुघुती(निर्भय) की अनूपस्थिति से परेशान थे। तभी एक कौवे ने घुघुती(निर्भय) की मोती की माला रानी के सामने फेक दी।  यह देख कर सभी को संदेह हुआ कि कौवे को घुघुती(निर्भय) के बारे में पता है इसलिए सभी कौवे के पीछे जंगल में जा पहुंचे और उन्हें पेड के निचे निर्भय दिखाई दिया।  उसके बाद रानी ने अपने पुत्र को गले लगाया और राज महल ले गयी। जब राजा को यह पता चला कि उसके पुत्र को मारने के लिए मंत्री ने षड्यंत्र रचा है तो राजा ने मंत्री और उसके साथियों को मृत्यु दंड दे दिया। घुघुती के मिल जाने पर रानी ने बहुत सारे पकवान बनाये और घुघुती से कहा कि अपने दोस्त कौवो को भी बुलाकर खिला दे और यह कथा धीरे धीरे सारे कुमाऊं में फैल गयी और इस त्यौहार ने बच्चो के त्यौहार का रूप ले लिया।  तब से हर साल इस दिन धूम धाम से इस त्यौहार को मनाया जाता है।  इस दिन मीठे आटे से पकवान बनाए जाते हैं जिसे “घुघुत” कहा जाता है।  उसकी माला बनाकर बच्चों द्वारा कौवों को खिलाया जाता है | मीठे आटे से यह पकवान बनाया जाता है जिसे ‘घुघुत’ नाम दिया गया है। इसकी माला बनाकर बच्चे मकर संक्रांति के दिन अपने गले में डालकर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं – ‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’। ‘लै कौवा भात में कै दे सुनक थात’। ‘लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़’। ‘लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़’ ‘लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे’। बहुत पावन है माघ मास, पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है मकर संक्रांति का वर्णन, इतिहास भी है इसका गवाह।

 गढ़वाल में होता है ,मकरसक्रांति के अवसर पर गिन्दी मेला: जहाँ मकर सक्रांति पर कुमाऊं मंडल में घुघुतिया त्यौहार मनाया जाता है, वही गढ़वाल मंडल में गिन्दी मेले का भव्य आयोजन किया जाता है। उत्तराखंड राज्य के जनपद पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर व दुगड्डा व द्वारीखाल ब्लाक के कुछ स्थानों में मकरसंक्रांति को एक अनोखा खेल खेला जाता है इस का उद्गम या जन्मस्थली थलनदी का मैदान है। जिसको की गेंद मेले के नाम से जाना जाता है। यह एक सामूहिक शक्ति परीक्षण का मेला है इस मेले में न तो खिलाडियों की संख्या नियत होती है,न इसमें कोई विशेष नियम होते हैं, बस दो दल बना लीजिये और चमड़ी से मढ़ी एक गेंद को छीन कर कर अपनी सीमा में ले जाइये, परन्तु जितना यह कहने सुनने में आसान है, उतना है नही, क्योंकि दूसरे दल के खिलाड़ी आपको आसानी से गेंद नहीं ले जाने देंगे ,  इस गुत्थमगुत्था में गेंद वाला नीचे गिर जाता है,जिसे गेन्द का पड़ना कहते है गेन्द वाले से गेंद छीनने के प्रयास में उसके ऊपर न जाने कितने लोग चढ़ हैं , कुछ तो बेहोश तक हो जाते हैं। ऐसी लोगो को बाहर निकल दिया जाता है होश आने पर वे फिर खेलने जा सकते हैं। जो दल गेन्द को अपनी सीमा में ले जाते हैं,वहीं टीम विजेता मानी जाती है इस प्रकार शक्तिपरीक्षण का यह अनोखा खेल 3 से 4 घन्टे में समाप्त हो जाता है इस खेल का उद्भव यमकेश्वर ब्लाक व् दुगड्डा ब्लाक की सीमा थलनदी नमक स्थान पर हुआ जहाँ मुगलकाल में राजस्थान के उदयपुर अजमेर से लोग आकर बसे  इसलिए यहाँ की पट्टियों(राजस्व क्षेत्र )के नाम भी उदेपुर वल्ला,उदेपुर मल्ला,उदेपुर तल्ला एवम उदेपुर पल्ला (यमकेश्वर ब्लाक) व अजमीर पट्टिया(दुगड्डा ब्लाक)हैं। थलनदी में यह खेल आज भी इन्हीं लोगो के बीच खेला जाता है। यमकेश्वर में यह किमसार,यमकेश्वर,त्योडों,ताल व कुनाव नामक स्थान पर इस मैला का आयोजन बडे धूमधाम से मनाया जाता है। तथा द्वारीखाल में यह डाडामंडी व कटघर में खेला जाता है, कटघर में यह उदेपुर व ढागू के लोगो के बीच खेला जाता है। दुगड्डा में यह मवाकोट (कोटद्वार के निकट ) में खेला जाता है।




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