Girish Tiwari Girda Biography: गिरीश तिवारी गिर्दा जिन्होंने अपने गीतों के माध्यम से जन आंदोलनों में फूकी जान, जाने एक रिक्शा चालक से जनकवि बनने तक कैसा रहा उनका सफर….
भारत के उत्तर में बसे उत्तराखंड राज्य की वादियां जितनी शांत हैं उतनी ही जिंदादिली भरी हैं यहां के लोगों के अंदर। जी हां आज उत्तराखंड भले ही देश दुनिया में विख्यात है लेकिन इस राज्य ने अपने अस्तित्व में आने और हमेशा से ही खुद को बचाने के लिए कई प्रकार से संघर्ष किए हैं। शुरू से ही इस राज्य का जीवन काल बड़ा ही संघर्षमय रहा है। परंतु यहां के लोगों के साहस और प्रेरणा ने हमेशा ही अपने राज्य की रक्षा की है और इसके अस्तित्व पर कभी कोई आंच नहीं आने दी। समय-समय पर उत्तराखंड की माटी को जीवित रखने के लिए कई प्रकार के लोगों ने जन्म लिया जिन्होंने कभी अनशन कर तो कभी भूखे प्यासे रहकर तो कभी आंदोलनों में शामिल होकर अपनी माटी के अस्तित्व को बचाया। आज हम आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही आंदोलनकारी के बारे में बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपने गीतों के माध्यम से उत्तराखंड के लोगों को जगाने का काम किया। वह जन आंदोलनकारी हैं गिरीश तिवारी गिर्दा।
(Girish Tiwari Girda Biography) यह भी पढ़ें- एक परिचय एक मिशाल जिन्दगी की जंग से उभरकर पद्मश्री तक का सफर “जागर गायिका बसंती बिष्ट”
•जीवन परिचय (Biography):-
मूल रूप से अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम के रहने वाले गिरीश तिवारी एक ऐसे गीतकार रचनाकार और प्रतिभा के धनी जनकवि थे जिन्होंने हमेशा से ही पहाड़ी लोगों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। इनका जन्म 10 सितंबर 1945 को अल्मोड़ा के हॉलबाग ब्लाक के ग्राम ज्योली में हुआ था। इनकी माता का नाम जीवंती तिवारी एवं पिता का नाम हंसा दत्त तिवारी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा एवं बाद की शिक्षा नैनीताल में हुई है। गिरीश तिवारी को सभी लोग गिर्दा कहकर बुलाते थे। उनमें जनता के प्रति कुछ करने की भावना और ललक बचपन से ही थी। वह एक सच्चे जन सेवक थे जो समय-समय पर पहाड़ी क्षेत्र में हो रहे शोषण के विरुद्ध सरकारी तंत्र से भिड़ने को लेकर हमेशा ही तैयार रहते थे। वह हर कार्य ईमानदारी से करते थे एवं जनता के लिए मर मिटने को भी तैयार रहते थे।शुरुआती काल में कई सरकारी विभागों में काम करने के बाद वह अपने उत्तराखंड और समाज की संस्कृति के लिए कार्य करने लगे और धीरे-धीरे वह कविताएं लिखने लगे। अपनी कविताओं के जरिए उन्होंने लोगों की पीड़ा को समाज के सामने व्यक्त किया और इन्हीं गीतों के जरिए उत्तराखंड में जगह जगह पर होने वाले आंदोलन में क्रांति की जान भी झोंकी। इनके कविताओं में न केवल जनमानस की पीड़ा बल्कि बार-बार किए गए सामाजिक संस्कृतिक परिवर्तन के लिए आंदोलनों जैसे कि चिपको आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन आदि आंदोलनों के लिए पीड़ा भी झलकती है ।इन्होंने अपने गीतों और गायकी के द्वारा इन जन आंदोलनों में लोगों का ध्यान आकर्षित किया जिससे लोगों के अंदर इन आंदोलनों के प्रति ज्वलंत जवालाये उठी थी।
(Girish Tiwari Girda Biography)
•सामाजिक एवं साहित्यिक जीवन की शुरुआत (Beginning of social and literary life):-:-
गिर्दा का शुरुआती जीवन बड़ा कठिन रहा है। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने अलीगढ़ में रिक्शा तक चलाया। वह शुरुआत में पीडब्ल्यूडी विभाग में कार्यरत थे जिसके लिए वह उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों जैसे लखीमपुर खीरी, पीलीभीत इत्यादि जगहों भी रहे उस समय वह मात्र 22 वर्ष के थे। इसी समय इनकी मुलाकात कुछ ऐसे आंदोलनकारियों से हुई जिनके साथ रह कर वह जन आंदोलनों के प्रति इतने प्रभावित हुए कि 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना जीवन समाज के लिए समर्पित करने की ठान ली थी और वह रंगमंच कलाकार के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी बन गए। जिसके बाद उन्होंने लोगों के विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ अपने गानों के माध्यम से आवाज उठानी शुरू कर दी। कुछ समय तक जीविका के लिए काम करने के बाद 1967 में इन्होंने सरकार की गीत और नाटक प्रभाग में स्थाई नौकरी की शुरुआत की और लखनऊ में रहने के दौरान सुमित्रानंदन पंत ,निराला, ग़ालिब जैसे लेखकों और कवियों के गायकी और रचनाओं के अध्ययन करने के बाद 1968 में कुमाऊं की गलियों में अपना पहला संग्रह “शिखरों के स्वर” प्रकाशित किया। बाद में उन्होंने अंधेरी नगरी चौपट राजा , अंधा युग, धनुष यज्ञ, जैसे कई नाटक भी लिखें। जनकवि और आंदोलनकारी गिर्दा बचपन से ही अपने माटी के प्रति संवेदनशील और कुमाऊं क्षेत्र के पर्वतीय आंचल के समस्याओं से रूबरू थे। जब उत्तराखंड में 80 के दशक में जगह-जगह आंदोलन होने लगे तो गिर्दा के हृदय से इन आंदोलनों के लिए संवेदनशील रचनाएं फूटने लगी। चिपको आंदोलन हो या वनों के नीलामी के विषय में आंदोलन हो या नशा मुक्ति आंदोलन हो सब में इन्होंने अपनी संवेदनशील रचनाओं से लोगों के अंदर ज्वाला और उग्र कर दी। इन्हीं आंदोलनों के बाद गिर्दा एक जनकवि के रूप में उभरने लगे।
(Girish Tiwari Girda Biography)
वर्ष 1977 को जब सरकार कुमाऊं क्षेत्र को नीलाम करने में लगी थी तब इन्होंने वनों के नीलामी के विरोध में रचना लिखी जिसमें उन्होंने “आज हिमालय तुमनके धातु छो जागो जागो हो मेरा लाल ”अर्थात हिमालय के लाल हिमालय तुझको पुकार रहा है। जिसके बाद संपूर्ण जनमानस जाकर आंदोलन के हुंकार में भाग लेने लगा। फिर कुछ समय बाद 1994 में एक बार फिर उत्तराखंड राज्य आंदोलन शुरुआत हुई। इस बार भी उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से जन आंदोलन में जान फूंकने का काम किया। उन्होंने अपने संग्रह “जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में चाहे हम ने ल्या सकूं, चाहे तुम नि ल्या सको , जैंता क्वै न क्वै त ल्यालो, ये दुनी में ,जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में…” अर्थात एक खुशी का दिन तो आएगा इस दुनिया में चाहे तुम नहीं ला पाए हम ना ला पाए लेकिन कोई ना कोई तो उस दिन को लेकर आएगा। यही नहीं जब पहाड़ों पर नदियों में अंधाधुंध दोहन हो रहा था तब भी उन्होंने इस पर अपने रचना के माध्यम से लिखा ! “अजी वाह! क्या बात तुम्हारी, तुम हो पानी के ब्योपारी, खेल तुम्हारा तुम्हीं खिलाड़ी, बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी” । जन आंदोलनों में अपनी गायकी से लोगों को उत्साह करने और प्रेरित करने के लिए गिर्दा कई बार जेल भी गए। हमेशा से ही कठिनाइयों एवं संघर्ष भरी जीवन जीने वाले गिर्दा के कई गीत एवं रचनाएं थी जैसे धरती माता तुम्हारा ध्यान जागों, जैंता इक दिन तो आलो आदि कई काव्य संग्रह एवं रचनाएं हैं, जो ना केवल उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध हुए। इन रचनायों के माध्यम से गिर्दा ने जनमानस को हमेशा से ही जगाने का काम किया और हिमालय के तलहटी में बसा पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के हर प्राकृतिक चीज का महत्व लोगों को अपने गीतों के माध्यम से समझाया।
तो यह थे उत्तराखंड के एक ऐसे जनकवि जिन्होंने समय-समय पर अपने माटी के लोगों के लिए आवाज उठाई और इन के विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ अपनी कलम और गायकी द्वारा लोगों के मन में साहस और उत्साह और जुनून भरा।
(Girish Tiwari Girda Biography)