Garhwal Rifles History Hindi: गढ़वाल राइफल्स का इतिहास है अपने आप में शौर्य और पराक्रम से ओतप्रोत
फिर जब भारतीय सैनिकों की एक बटालियन को वर्मा भेजा गया तो इसमें अधिकतर गढ़वाली और गोरखा सैनिक थे। इस युद्ध में गढ़वाली सैनिकों ने फिर अच्छा प्रदर्शन किया जिसके चलते उनका एक अलग बटालियन बनाया गया। तत्पश्चात इस बटालियन का नाम गढ़वाल रायफल्स रख दिया गया। गढ़वाल राइफल्स को अपनी बहादुरी और साहस के लिए कई बार सम्मानित किया जा चुका है। यह देश की सबसे अधिक ब्रेवरी अवार्ड को प्राप्त करने वाली सेना है।
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तो इस प्रकार गढ़वाल राइफल्स की स्थापना हुई। हर बार प्रत्येक युद्ध में गढ़वाली सैनिकों के वीरता, साहस, बहादुरी और वफादारी के चर्चों के बाद 4 नवंबर 1887 में पौड़ी गढ़वाल के कालौडांडा में की गई। बाद में जगह का नाम बदलकर लैंसडाउन रखा गया। अपनी बहादुरी के लिए जाने वाला गढ़वाल राइफल की भूमिका की बात करें तो इसकी भूमिका कई युद्धों में जैसे 1919 में होने वाला प्रथम विश्वयुद्ध , 1939 में होने वाला द्वितीय विश्व युद्ध में, 1965 के भारत–पाकिस्तान युद्ध में, 1962 में होने वाला भारत–चीन युद्ध तथा 1999 पाकिस्तान और भारत के बीच होने वाला कारगिल युद्ध में रही है। जिनमें लगभग गढ़वाल राइफल के 700 से भी ज्यादा नौजवान सैनिक शहीद हुए थे। वर्तमान में गढ़वाल राइफल्स का कार्यालय लैंसडाउन में है जो कि उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में स्थित है। हर बार हजारों की संख्या में गढ़वाली नौजवान इस राइफल्स में भाग लेकर देश के लिए अपना योगदान देते हैं। इस राइफल्स के अंतर्गत उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के 7 जिले चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल, देहरादून, हरिद्वार और उत्तरकाशी सम्मिलित हैं।