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Jwalpa Devi Temple Pauri
फोटो सोशल मीडिया

उत्तराखण्ड

Jwalpa Devi Temple Pauri: मां ज्वालपा देवी मंदिर में अविवाहित कन्याएं जाती हैं मनोकामना लेकर

Jwalpa Devi Temple Pauri: पौड़ी गढ़वाल जनपद में कफोलस्यूं पट्टी के अणेथ में पूर्व नयार नदी के तट पर स्थित है यह मंदिर, वर्ष 1892 में हुई थी स्थापना…

Jwalpa Devi Temple Pauri
देवभूमि उत्तराखंड पूरे विश्व मे अपना धार्मिक और पौराणिक महत्व रखने के लिए जाना जाता है क्योंकि यहाँ पर बहुत सारे देवी- देवता निवास करते है उत्तराखंड की अगर बात करे तो यहाँ पर बहुत सारे ऐसे मंदिर है जो मां दुर्गा को समर्पित है और उन्हीं मंदिरों में से एक मंदिर माँ ज्वालपा देवी का भी है इस मंदिर का विशेष महत्व यह है यहाँ पर अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर कामना हेतु इस सिद्धपीठ पर आती है और इतना ही नही यहाँ पर अखंड ज्योत हमेशा प्रज्वलित रहती है। आपको जानकारी देते चले की माँ ज्वालपा देवी का मंदिर उत्तराखंड के पौड़ी जनपद में कफोलस्यूं पट्टी के अणेथ में पूर्व नयार नदी के तट पर स्थित है और यह मन्दिर श्रद्धालुओं के लिए वर्षभर खुला ही रहता है। दरअसल माँ ज्वालपा देवी मंदिर की स्थापना वर्ष 1892 में स्वर्गीय दत्तराम अणथ्वाल व उनके पुत्र बूथा राम अणथ्वाल ने की थी ।

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Jwalpa Devi Temple Story Hindi
ऐसा कहा जाता है की एक पुलोम नाम का दैत्य हुआ करता था जिनकी पुत्री का नाम सुची था और सुची मन ही मन देवताओं के राजा इंद्र को पसंद करती थी उन्होंने राजा इंद्र को अपने पति के रूप मे प्राप्त करने के लिए नयार नदी के किनारे तप किया था और ऐसा कहा जाता है कि सुची की तपस्या से प्रसन्न होकर मां भगवती ज्वाला यानी अग्नि के रूप में प्रकट हुई थी। इसके बाद मां ने उस कन्या की मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया था और मां भगवती के ज्वाला दर्शन देने के कारण इस मंदिर का नाम ज्वालपा देवी पड़ा था और ऐसा भी कहा जाता है की यहाँ पर मां के ज्वाला दर्शन के बाद से ही अखंड दीप प्रज्वलित रहता है। इस परंपरा को जारी रखने के लिए कफोलस्यूं, मवालस्यूं, रिंगवाडस्यूं, खातस्यूं, घुड़दौड़स्यूं और गुराडस्यूं पट्टयों के गांवों से तेल की व्यवस्था की जाती है और इन गाँव के लोगों द्वारा अपने खेतों में सरसों उगाई जाती है। इस मंदिर की एक और खास विशेषता है कि 18 वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह ने ज्वालपा देवी मंदिर के लिए 11.82 एकड़ भूमि दान की थी इसकी वजह यह थी की यहां पर सरसों उगाकर तेल का उत्पादन किया जा सके जिससे मंदिर की अखंड ज्योत हमेशा प्रज्वलित होती रहे।

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