देवभूमि उत्तराखंड में विराजमान हैं एक ऐसा धाम, जहां मन्नत पूरी होने पर चढ़ाए जाते हैं धनुष-बाण
मंदिर को कहा जाता है देवताओं की विधानसभा
वैसे तो देवभूमि उत्तराखंड सहित भारतवर्ष के अधिकतर मंदिरों में मनोकामना पूर्ण होने पर छत्र, ध्वजा, पताका, श्रीफल, घंटी आदि चढ़ाए जाते हैं परन्तु चम्पावत एवं नैनीताल जिले की सीमा पर स्थित ब्यानधुरा बाबा के मंदिर में मन्नत पूरी होने पर धनुष बाण चढ़ाने और पूजे जाने की परम्परा है। चम्पावत, नैनीताल व उधमसिंह नगर जनपदों की सीमा से लगे सेनापानी रेंज के घने जंगलों के बीच स्थित ब्यानधुरा मंदिर सड़क से 35 किमी दूर एक ऊंची चोटी पर है। इस मंदिर में विराजमान देवता को ऐड़ी देवता कहा जाता है। वैसे तो पूरे कुमाऊं के विभिन्न स्थानों पर ऐड़ी देवता के मंदिर स्थित है परन्तु ब्यानधुरा स्थित इस ऐड़ी देवता के मंदिर की पौराणिक मान्यता उनमें से सबसे अधिक है, इसी कारण समूचे कुमाऊं में इसे ‘देवताओं की विधानसभा’ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर में अनेक चमत्कार होते रहते हैं। इस मंदिर में ऐड़ी देवता को जहां लोहे के धनुष-बाण तो चढ़ाये जाते ही हैं , वहीं अन्य देवताओं को अस्त्र-शस्त्र चढ़ाने की परम्परा भी है। इस मंदिर की पौराणिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर को शिव के 108 ज्योर्तिलिंगों में से एक की मान्यता प्राप्त है।
ब्यानधुरा में आज भी मौजूद हैं अर्जुन का गांडीव धनुष
लोकमान्यताओं के अनुसार राजा ऐड़ी ने ब्यानधुरा में तपस्या की थी और अपने कठिन तप के बल से राजा ने देवत्व को प्राप्त किया था। उस समय के राजा ऐड़ी धनुष युद्ध विद्या में निपुण थे। ऐड़ी देवता का एक रुप महाभारत के अर्जुन के अवतार के रूप में भी माना जाता हैं और कहा जाता है कि महाभारत काल से ही ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे इस क्षेत्र को अज्ञातवास के दौरान पांडवो ने अपना निवासस्थल बनाया था और उस दौरान अर्जुन ने अपने गांडीव धनुष भी इसी स्थान पर किसी एक चोटी के पत्थर के निचे छिपाया था। लोक मान्यताओं के अनुसार अर्जुन का गांडीव धनुष आज भी इस क्षेत्र में मौजूद हैं और सिर्फ ऐड़ी देव के अवतार ही उस धनुष को उठा पाते हैं। इतिहासकार बताते हैं कि यह ऐतिहासिक स्थल महाभारत काल के अलावा मुग़ल और हुणकाल में बाहरी आक्रमणकारियों का भी गवाह रहा लेकिन यह आक्रमणकारी ब्यानधुरा क्षेत्र की चमत्कारिक शक्ति की वजह से चोटी से आगे पहाड़ो की ओर नहीं बढ़ सके । यह मंदिर कितना प्राचीन हैं , इसकी पुष्टि तो अभी तक नहीं हो पायी हैं लेकिन मंदिर परिसर में स्थित धनुष-बाण आदि के ढेर को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि यह ऐड़ी देवता का मंदिर एक प्राचीन पौराणिक मंदिर हैं ।
मंदिर में प्रतिवर्ष लगते हैं मेले एवं जागर, रात्रि जागरण से भी होती है मनोकामना पूर्ण
मंदिर के पुजारी आज भी कहते हैं कि यहां के अस्त्रों के ढेर में ऐड़ी देवता का सौ मन भारी धनुष भी उपस्थित है । इसके साथ ही मंदिर के पुजारी अनिल चंद्र जोशी के अनुसार मंदिर का डोला छः महीनों तक उनके गांव तलियाबांज में रहता है तत्पश्चात कार्तिक पूर्णिमा के दिन डोले को मुख्य मंदिर में ले जाया जाता है जहां बाबा का डोला आगामी छः महीनों तक विराजमान रहता है। इस मंदिर के ठीक आगे गुरु गोरखनाथ की अखंड धुनी हैं , जो कि लगातार जलती हैं। गुरु गोरखनाथ की धुनी के अलावा मंदिर प्रांगण में एक अन्य धुनी भी है , जिसके समक्ष प्रतिवर्ष जागर आयोजित होते हैं । इसके साथ ही मंदिर में प्रतिवर्ष विभिन्न पर्वों जैसे- मकर संक्रांति, चैत्र नवरात्र , माघी पूर्णमासी को भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता हैं । जिसमें तराई क्षेत्र से लेकर पूर्ण कुमाऊ क्षेत्र के लोग भारी संख्या में मंदिर में विराजित ऐड़ी और अन्य देवता की पूजा-अर्चना करने आते हैं | लोक मान्यताओं के अनुसार ब्यानधुरा मंदिर में जलते दीपक के साथ रात्रि जागरण करने से वरदान मिलता हैं और विशेषकर संतानहीन दंपत्तियों की मनोकामना पूर्ण होकर उनकी सूनी गोद भर जाती है। यह मंदिर पौराणिक मान्यताओं के साथ ही अपने अलौकिक सौंदर्य की वजह से भी दर्शनार्थियों को खूब भांता है। दर्शनार्थियों के अनुसार ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से मिलने वाली शीतल छाया एवं ठंडी-ठंडी हवा के साथ ही मनमोहक दृश्य 35 किमी की दूरी में भी उन्हें थकान का अहसास तक नहीं होने देते हैं।