उत्तराखण्ड में जिस प्रकार तेजी से पलायन देखने को मिल रहा है, उसके साथ -साथ उत्तराखण्ड की स्थानीय भाषा बोली कुमाउनी ,गढ़वाली और जौनसारी पर भी संकट के बादल मडरा रहे है। जिस प्रकार हर किसी देश के लिए अपनी राष्ट्र भाषा का ज्ञान होना जरुरी है उसी प्रकार किसी स्थानीय विशेष के लोगो को अपनी भाषा का ज्ञान और उसके प्रति सम्मान की भावना होनी चाहिए।
उत्तराखण्ड में विलुप्त होती स्थानीय भाषा- उत्तराखण्ड एक सुन्दर पर्वतीय राज्य होने के साथ साथ दुनिया भर में अपने पर्यटन के लिए प्रसिद्द है ,लेकिन यह पहाड़ी राज्य आज खुद के पूर्वजो के बसाये गॉवो को छोड़ शहरो में पलायन कर चूका है, अब सब शहरी हो गये है तो अपनी संस्कृति और भाषा को भी पीछे छोड़ चुके है। खाश कर आज की युवा पीढ़ी जो अब पूरी तरह शहरो की चकाचौंध दुनिया में अपने पहाड़ो की संस्कृति को भूल गए है उनके लिए जरुरी है की उन्हें अपनी स्थानीय भाषा का ज्ञान हो, क्योकि आपकी भाषा ही आपको अपने संस्कृति से जोड़े रखती है।
पहाड़ो की संस्कृति को बचाने की नयी मुहीम- अभी बहुत से युवा और संघठन अपने पर्वतीय भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए विभिन्न स्थानों में कार्यकर्म चला रहे है। इसी श्रंखला में आते है पर्वतीय क्षेत्रों के विद्यालय जो एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जिसके द्वारा एक विद्यार्थी अपने जीवन में अपनी भाषा और संस्कृति का महत्व समझ सकता है। बहुत से युवा सोशल साइट के माध्यम से भी अपने लोकगीतों को नए तरीके से पेश कर के अपनी भाषा और संस्कृति को संजोये हुए है।
चमोली की राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज सितेल घाट ने की पहल- वैसे चमोली से पहले पिथौरागढ़ जिले में भी राजकीय स्कूलो में कुमाउँनी भाषा में स्कूली बच्चे प्रार्थना करते हुए दिखे जिनकी वीडियो सोशल साइट पर काफी वायरल हो रही थी ,अब चमोली सितेल घाट के राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज में भी गढ़वाली भाषा में प्रार्थना होनी शुरू हो गयी है यह आज की भावी युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति और भाषा से जोड़े रखने का सशक्त माध्यम है।