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Uttarakhand Nanda Devi Raj Jat Yatra
Image Source social media - Nanda Devi Raj Jat Yatra uttarakhand

उत्तराखण्ड विशेष तथ्य

देवभूमि दर्शन

नंदा देवी राजजात यात्रा से जुड़ी कहानी है बेहद पौराणिक, जानें यात्रा से जुड़े कुछ विशेष तथ्य

Uttarakhand Nanda Devi Raj jaat yatra : विश्व की सबसे लंबी पैदल यात्रा नंदा देवी राज जात यात्रा, गढ़वाल और कुमाऊं के लोगों की इष्ट देवी के रूप में पूजी जाती है मां नंदा….

Uttarakhand Nanda Devi Raj jaat yatra : उत्तराखंड अपनी धार्मिक मान्यताओं और पौराणिकताओं के चलते पूरे विश्व भर में अपनी विशेष पहचान रखता है जो विश्व भर के लोगों को अपनी ओर बेहद आकर्षित करता है। ठीक उसी प्रकार से उत्तराखंड मे विशेष महत्व रखती है नंदा देवी राजजात यात्रा जिसका संबंध गढ़वाल और कुमाऊं के लोगों से है। नंदा देवी राज जात यात्रा को विश्व की सबसे लंबी पैदल यात्रा माना जाता है जिसका आगाज 12 वर्षों में किया जाता है। अगली नंदा राजजात यात्रा वर्ष 2026 में होनी है।उत्तराखंड में माँ नंदा को अनेकों रूप में पूजा जाता है जो स्वयं में विशेष धार्मिक महत्व रखती है। आपको बता दें कि यह तीर्थयात्रा चमोली जिले के कर्णप्रयाग के पास नौटी गांव से शुरू होती है और होमकुंड नामक एक ऊंचे मैदान पर जाकर समाप्त होती है।

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दरअसल नंदा देवी राज जात यात्रा उत्तराखंड राज्य में होने वाली नंदा देवी की एक धार्मिक यात्रा है। मां नंदा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुमाऊं के कत्यूरी राजवंश की इष्ट देवी के रूप में पूजी जाती थी क्योंकि गढ़वाल और कुमाऊं के लोग मां नंदा को अपना इष्ट मानते हैं इसलिए वह नंदा देवी को राजराजेश्वरी कहकर भी संबोधित करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि मां नंदा पार्वती की बहन है जबकि कुछ लोग कहते हैं कि पार्वती ही मां नंदा है। इतना ही नहीं बल्कि मां नंदा कई नाम से प्रसिद्ध है जैसे शिवा, सुनंदा, शुभा नंदा,नंदिनी। मां नंदा के प्रति पूरे उत्तराखंड के लोगों का अटूट विश्वास और श्रद्धा भाव रहता है या यूं कहे की मां नंदा से गढ़वाल और कुमाऊं के लोगों का एक अटूट रिश्ता रहा है। दरअसल मां नंदा देवी राज जात यात्रा मां नंदा को मायके से उनके ससुराल भेजने की यात्रा है। माना जाता है कि पट्टी चांदपुर और श्री गुरु शीतला मां नंदा के मायके है और बान्धाण क्षेत्र मां नंदा का ससुराल है। मां नंदा को भगवान शिव की पत्नी माना जाता है और कैलाश हिमालय भगवान शिव का निवास स्थान है। किवदंती के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि एक बार मां नंदा अपने मायके आई थी जिसके बाद किन्हीं कारणों से माता 12 वर्षों तक ससुराल नहीं जा पाई इसलिए जब 12 वर्ष बाद मां नंदा को उनके ससुराल भेजा गया तो मायके वालों ने बड़े हर्षोल्लास के साथ माता को उनके ससुराल भेजा तब से लेकर आज तक यह रीत चली आ रही है और हर 12 वर्ष बाद मां नंदा देवी राज जात यात्रा का आयोजन किया जाता है।

इस यात्रा की शुरुआत करने का श्रेय गढ़वाल के राजा शालीपाल और कनक पाल को दिया जाता है। मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि प्राचीन काल में भगवान आशुतोष एवं पार्वती कैलाश की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी इस दौरान मां नंदा को प्यास लगी और वह निकटवर्ती गांव बन्धाणि जा पहुंची जबकि भगवान शंकर सीधे आगे की ओर निकल गए। बन्धाणि गांव में उस समय के चौकीदार एवं प्रधान जमन सिंह जादोडा ने मां पार्वती को पानी पिलाने के साथ-साथ उनका खूब आदर सत्कार करते हुए दही और भात खिलाया तथा विदा होते समय जमन सिंह ने मां पार्वती को कहा कि कैलाश जाते समय वे एक बार फिर से उनके घर जरूर आएं। इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए मां श्री नंदा राजजात में कैलाश विदा होने से पूर्व इडा बंधानी में जादौड़ा वंशज गुसाईं लोगों के घर मां नंदा देवी की डोली रात्रि विश्राम करती है।

Nanda Devi Raj Jat Yatra Story: मां नंदा से जुड़ी कथा

मां नंदा से जुड़ी कई कथाएं हैं उन्हीं मे से एक प्रचलित कथा यह भी है कि एक बार एक लड़की के मायके में किसी धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन किया गया था जिसमें मायके पक्ष ने अपनी बेटी को इस अनुष्ठान में नहीं बुलाया लेकिन वह लड़की अपने ससुराल से लड़ झगड़ कर अपने मायके की ओर अनुष्ठान के लिए चल पड़ी। ससुराल पक्ष ने लड़की को बहुत समझाया कि तुम्हारे मायके वालों ने तुम्हें आमंत्रित नहीं किया है इस तरह से जाना ठीक नहीं है लेकिन लड़की नहीं मानी। लड़की जैसे ही अपने ससुराल से मायके की ओर जा रही थी तभी उसके पीछे एक गुस्सैल भैंस पड़ गई उससे जान बचाते हुए वह लड़की एक केले के पेड़ के पीछे जा छुपी लेकिन इतने में ही वहां पर एक बकरी आ गई और उसने उन पत्तों को खा लिया जिनके पीछे लड़की छुपी हुई थी तभी गुस्सैल भैंस की नजर लड़की पर पड़ी और उसने लड़की को इस तरीके से मारा कि उसने अपने प्राण त्याग दिए। इसके बाद से ससुराल पक्ष को यही लगता रहा की लड़की अपने मायके है और मायके पक्ष को भी इस बात की कोई खबर नहीं थी की लड़की अनुष्ठान के लिए ससुराल से निकली थी। काफी समय तक दोनों पक्षों ने लड़की की खोज नहीं की तो लड़की के मायके और ससुराल में कुछ अजीबोगरीब घटनाएं होने लगी जैसे गाय के पेट से बकरी जन्म लेने लगी और लोगों की सारी फसले खराब हो गई या फिर अलग फसल से अलग अनाज उत्पन्न होने लगा दोनों पक्ष इस बात से परेशान हो गए कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। तभी एक दिन वह लड़की किसी के सपने में आई और उसने बताया कि मेरे साथ ऐसी घटना हुई लेकिन तुम लोगों ने मेरी खोज नहीं की इसलिए तुम्हें मेरी याद दिलाने के लिए मैंने ऐसा किया। कहा जाता है कि तब से उस लड़की को मां नंदा के रूप में पूजा जाता है और देवी बनाया जाता है। आज माँ नन्दा संपूर्ण उत्तराखंड में कई जगह बेटी बहन और कहीं बहू के रूप में पूजी जाती है। 12 साल में आयोजित होने वाली नंदा राजजात में मुख्य रूप से चौशींग्या खाडू (चार सिंह वाला बकरा) मां नंदा का सहायक माना जाता है जो हर 12 वर्ष बाद ही जन्म लेता है।

जाने कहां से शुरुआत होती है मां नंदा राजजात यात्रा

चमोली के नॉटी से शुरू होकर कुरूड के मंदिर से दसौली और बंधाण की डोलिया राजजात का आगाज करती है जिसके लिए लगभग 240 किलोमीटर की दूरी पर नॉटी से हेमकुंड तक पैदल यात्रा करनी पड़ती है। इस बीच उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों से अनेक छतोलिया इस यात्रा में शामिल होते है। इस यात्रा में नौटियाल और कुंवर लोग चौसिंग्या खाडू और रिगाल की छतौलिया लेकर आते हैं। नौटियाल और कुंवर लोग मां नंदा के उपहार को इस बकरे की पीठ पर हेमकुंड तक ले जाते हैं और वहां से यह बकरा अकेला ही आगे बढ़ जाता है ऐसा कहा जाता है कि ठीक कैलाश पर्वत तक जाते ही इस खाडू के जन्म के साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाएं शुरू होने लग जाती है जिस भी जगह पर यह जन्म लेता है उसी दिन से वहां शेर आना शुरू कर देता है जब तक इस खाडू का मालिक राजा को अर्पित करने की मनौती नहीं रखना तब तक वहां शेर लगातार आता ही रहता है। बताते चले चौसिंगा खाडू (काले रंग का भेड़) श्रीनंदा राजजात की अगुवाई करता है मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाडू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है।

यात्रा के मुख्य पडाव
० ईड़ाबधाणी
चमोली के नौटी से यात्रा के शुरू होते ही श्रद्धा का सैलाब उमड़ता रहता है। ढोल-दमाऊं और पौराणिक वाद्य यंत्रों के साथ ईड़ाबधाणी पहुंचने पर मां श्रीनंदा का भव्य स्वागत किया जाता है।
० नौटी
ईड़ाबधाणी से दूसरे दिन राजजात रिठोली, जाख, दियारकोट, कुकडई, पुडियाणी, कनोठ, झुरकंडे और नैंणी गांव का भ्रमण करते हुए रात्रि विश्राम के लिए नौटी पहुंचती है। यहां मंदिर में मां नंदा का जागरण होता है।
० कांसुवा
नौटी से मां श्रीनंदा तीसरे पड़ाव कांसुवा गांव पहुंचती हैं, जहां राजवंशी कुंवर माई नंदा और यात्रियों का भव्य स्वागत करते हैं। यहां भराड़ी देवी और कैलापीर देवता के मंदिर हैं। भराड़ी चौक में चार सिंग के मेढ और पवित्र छंतोली की पूजा होती है।
० सेम
कांसुवा से सेम जाते समय चांदपुर गढ़ी विशेष राजजात का आकर्षण का केंद्र रहता है। यहां से महादेव घाट मंदिर होते हुए उज्ज्वलपुर, तोप की पूजा प्राप्त कर देवी सेम गांव पहुंचती है। यहां गैरोला और चमोला गांव की छंतोलियां शामिल होती हैं।
० कोटी
सेम से धारकोट, घड़ियाल और सिमतोली में देवी की पूजा होती है। सितोलीधार में देवी की कोटिश प्रार्थना की जाती है, इसलिए धार के दूसरे छोर पर स्थित गांव का नाम कोटी पड़ा। कोटी पहुंचने पर देवी की विशेष पूजा होती है।
० भगोती
भगोती मां श्रीनंदा के मायके क्षेत्र का सबसे अंतिम पड़ाव है। यहां केदारु देवता की छंतोली यात्रा में शामिल होती है।
० कुलसारी
मायके से विदा होकर मां श्रीनंदा की छंतोली अपनी ससुराल के पहले पड़ाव कुलसारी पहुंचती हैं। यहां पर राजजात हमेशा अमावस्या के दिन पहुंचती है।
० चेपड्यूं
कुलसारी से विदा होकर थराली पहुंचने पर भव्य मेला लगता है। यहां कुछ दूरी पर देवराड़ा गांव है, जहां बधाण की राजराजेश्वरी नंदादेवी वर्ष में छ: माह रहती है। चेपड्यूं बुटोला थोकदारों का गांव है। यहां मां नंदादेवी की स्थापना घर पर की गई है।
० नंदकेशरी
वर्ष 2000 की राजजात में नंदकेशरी राजजात पड़ाव बना। यहां पर बधाण की राजराजेश्वरी नंदादेवी की डोली कुरुड से चलकर राजजात में शामिल होती है। कुमाऊं से भी देव डोलियां और छंतोलियां शामिल होती हैं।
० फल्दियागांव
नंदकेशरी से फल्दियागांव पहुंचने के दौरान देवी मां पूर्णासेरा पर भेकलझाड़ी यात्रा में विशेष महत्व है।
पूजा-अर्चना के बाद मुंदोली पहुंचती है राजजात
० मुंदोली
ल्वाणी, बगरियागाड़ में पूजा-अर्चना के बाद राजजात मुंदोली पहुंचती है। गांव में महिलाएं और पुरुष सामूहिक झौंड़ा गीत गाते हैं।
० वाण
लोहाजंग से देवी की राजजात अंतिम बस्ती गांव वाण पहुंचती है। यहां पर घौंसिंह, काली दानू और नंदा देवी के मंदिर हैं।
० गैरोलीपातल
द्धाणीग्वर और दाडिमडाली स्थान के बाद गरोलीपातल आता है। यह पहाड़ यात्रा का पहला निर्जन पड़ाव है।
० वैदनी
इस राजजात में वैदनी को पड़ाव बनाया गया है। मान्यता है कि महाकाली ने जब रक्तबीज राक्षस का वध किया था, तो भगवान शंकर ने महाकाली को इसी कुंड में स्नान कराया था, जिससे वे पुन: महागौरी रूप में आ गई थी।
० पातरनचौंणियां
वेदनी कुड से यात्री दल पातरनचौंणियां पहुंचती है। यहां पर पूजा के बाद विश्राम होता है।
० शिला समुद्र
पातरनचौंणियां के बाद तेज चढ़ाई पार कर कैलवाविनायक पहुंचा जाता है। यहां गणेश जी की भव्य मूर्ति है। इस दौरान बगुवावासा, बल्लभ स्वेलड़ा, रुमकुंड आदि स्थानों से होकर मां नंदा की राजजात शिलासमुद्र पहुंचती है।
० चंदनियाघाट
हेमकुंड में राजजात मनाने के बाद नंदा भक्त रात्रि विश्राम के लिए चंदनियाघाट पहुंचते हैं। यहां पहुंचने का रास्ता काफी खतरनाक है।
० सुतोल
राजजात पूजा के बाद श्रद्धालु रात्रि विश्राम के लिए सुतोल पहुंचते हैं। इस गांव के रास्ते में तातड़ा में धौसिंह का मंदिर है।
० घाट
नंदाकिनी नदी के दाहिने किनारे चलकर सितैल से नंदाकिनी का पुल पार कर श्रद्धालु घाट पहुंचते हैं।
इसके बाद यात्रा वापस नौटी पहुंचती है
घाट और नंदप्रयाग से होते हुए श्रद्धालु सड़क मार्ग से कर्णप्रयाग पहुंचते हैं। यहां ड्यूड़ी ब्राह्मण राजकुंवर और बारह थोकी के ब्राह्मणों को विदा करते हैं नौटी पहुंचते हैं। अन्य को भी सुफल देते हुए राजकुंवर और राज पुरोहित के साथ शेष यात्री नंदाधाम नौटी पहुंचते हैं।

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