Uttarakhand: बचपन से था सेना में कमांडो बनने का शौक, महज 17 वर्ष की उम्र में मार लिया था भर्ती का मैदान पर नियति के आगे हार गए जांबाज शहीद (Martyr) बृजेश, अधूरा रह गया कमांडो बनने का सपना, शहादत की खबर से ही मां हुई बेसुध..
बेटे की शहादत की खबर से बेसुध मां पुष्पा देवी, रोते-बिलखते भाई अमित एवं बहन कल्पना, बेटे के हसीन सपनों में खोकर खुद को संभालने की कोशिश करते फौजी पिता दलवीर सिंह और शोकाकुल परिजनों को सांत्वना देने उमड़ी ग्रामीणों की भीड़, ऐसा ही कुछ गमहीन माहौल है मां भारती की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राज्य (Uttarakhand) के वीर सपूत शहीद (Martyr) बृजेश सिंह रौतेला के घर का। मात्र 23 वर्ष की उम्र में वीरगति प्राप्त करने वाले मां भारती के वीर सपूत का पार्थिव शरीर शुक्रवार को उनके पैतृक गांव पहुंचने की संभावना सेना के अधिकारियों द्वारा जताई गई है। युवा जांबाज बेटे की शहादत की खबर से जहां उसकी मां बार-बार गश खाकर बेहोश हो रही है और होश आने पर जांबाज पुत्र के किस्सों को याद कर फिर गश खाकर बेसुध हो रही है। वहीं अन्य परिजनों के साथ ही पूरे गांव में मातम पसरा हुआ है। सेना की 7 कुमाऊं रेजिमेंट में तैनात उत्तराखंड के इस लाल की शहादत की खबर से न केवल उसके पैतृक गांव और जिले में मातम पसरा हुआ है बल्कि समूचे उत्तराखंड में भी शोक की लहर छा गई है।
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प्राप्त जानकारी के अनुसार मूल रूप से राज्य के अल्मोड़ा जिले की रानीखेत तहसील के ताडी़खेत विकासखंड के सरना गांव निवासी बृजेश सिंह रौतेला सेना की 7 कुमाऊं रेजिमेंट में तैनात थे। वर्तमान में उनकी पोस्टिंग सिक्किम में थी। विदित हो कि बीते बुधवार को पूर्वी सिक्किम में कुमाऊं रेजिमेंट के जवानों का एक ट्रक गंगटोक की ओर जा रहा था। जैसे ही यह ट्रक न्यू जवाहलाल नेहरू रोड पर पहुंचा तो एकाएक दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जिससे बृजेश के साथ ही तीन जवान शहीद हो गए। बता दें कि यह मार्ग गंगटोक को सोमगो झील व भारत चीन सीमा के निकट नाथुला से जोड़ता है। मां भारती की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले बृजेश के पिता दलवीर सिंह भी एक फौजी रह चुके हैं और उन्हें अपनी वीरता, बहादुरी के लिए सेना मेडल से भी सम्मानित किया जा चुका है। दलवीर कहते हैं कि बृजेश को बचपन से ही सेना में कमांडो बनने का शौक था। मात्र 17 वर्ष की उम्र में अपने पहले ही प्रयास में सेना भर्ती पास करने वाले बृजेश उम्र कम होने के कारण 18 वर्ष की आयु में अपने दूसरे प्रयास में कुमाऊं रेजिमेंट का अभिन्न अंग बन गए थे। पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। जिस कारण उनका कमांडो बनने का सपना भी अधूरा रह गया।
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