देहरादून: पहाड़ी राज्य होने के बाद भी गढ़वाली-कुमाऊंनी में प्रोग्राम करने से किया मना
गैरसैंण के बाद अपने ही राज्य में बेगानी हुई कुमाऊनी-गढवाली:- प्राप्त जानकारी के अनुसार यह शर्मनाक वाकया राज्य की राजधानी देहरादून में आयोजित युवा महोत्सव में बीते गुरुवार को उस समय घटित हुआ जब पहाड़ी जिलों की टीमों को यह कहते हुए गढ़वाली और कुमाऊनी में कोई भी प्रोग्राम करने से मना कर दिया कि आपको हिंदी और अंग्रेजी में ही कोई भी कार्यक्रम प्रस्तुत करना होगा। प्रस्तुति से ऐन वक्त पहले ऐसी दुखद जानकारी मिलने से जहां राज्य के रूद्रप्रयाग जिले और सीमांत जनपद पिथौरागढ़ की टीमों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ा वहीं काफी मान-मनौव्वल करने के बाद भी नौकरशाहों ने उन्हें अपनी बोली-भाषा में कार्यक्रम प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी। इसका कारण उन्हें यह बताया गया कि भारत सरकार के द्वारा जारी गाइडलाइन के अनुसार हिंदी या अंग्रेजी में ही एकांकी को कराने के आदेश है। परंतु सबसे खास बात तो यह है कि जिस युवा महोत्सव के राज्य स्तरीय कार्यक्रम में अपनी बोली-भाषा को दरकिनार करते हुए शासन की गाइडलाइंस समझाई गई उसके जिला स्तरीय कार्यक्रम में ये टीमें कुमाऊनी-गढवाली में प्रस्तुति दे चुकी है। यहां तो अब यह कहना कतई बेमानी नहीं होगा कि राजधानी देहरादून जाते-जाते कुमाऊनी-गढवाली बेगानी होने लगी है।
कुमाऊनी-गढवाली में लिखे डायलॉग्स को हिंदी में ट्रांसलेट कर दी प्रस्तुति:- युवा महोत्सव में पिथौरागढ़ और रूद्रप्रयाग जिले की टीमों द्वारा अधिकारियों से काफी अनुरोध करने के बाद भी जब कुमाऊनी-गढ़वाली में कार्यक्रम प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं मिली तो दोनों ही टीमों को कुमाऊनी-गढवाली में लिखे अपने डायलॉग्स को हिंदी में बोलकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ानी पड़ी। कार्यक्रम की शोभा तो बढ़ गई परंतु स्थानीय बोलियों के हटने से एक ओर तो उनकी प्रस्तुति पर असर पड़ा वहीं दूसरी ओर कलाकारों के दिल में एक टीस भी उठी कि क्या इसी दिन को देखने के लिए अलग उत्तराखण्ड राज्य मांगा था? यह हालत तब है जब राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत खुद अपनी बोली-भाषाओं के संरक्षण की बात कर रहे हैं और इसके लिए उन्होंने पहले गढ़वाली भाषा की पुस्तकों और अब हाल ही में कुमाऊनी भाषा की पुस्तकों का विमोचन कर उन्हें प्राइमरी कक्षाओं के सेलेबस में सम्मिलित करने के आदेश दिए हैं। सच कहें तो इतने वर्षों में ना तो ये सरकारें राज्य की राजधानी ही तय कर पाई और ना ही हमारी समस्याओं का अंत। पलायन की मार के बाद आज तो हमारी बोली-भाषा और हमारी सभ्यता एवं संस्कृति भी हाशिए पर हैं।