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Uttarakhand tea history Hindi

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uttarakhand tea history hindi: उत्तराखंड में कैसे आई चाय??

uttarakhand tea history hindi: उत्तराखण्ड में 1834 में शुरू हुआ था चाय उत्पादन का सफर, अंग्रेजों ने अल्मोड़ा, कौसानी, चौकोड़ी आदि स्थानों पर स्थापित किए चाय बागान….

uttarakhand tea history hindi
उत्तराखंड अपनी प्राकृतिक सौंदर्यता और वनस्पतियों के लिए पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध राज्य माना जाता है लेकिन क्या आप लोगो को यह बात पता है की यहाँ पर चाय का उत्पादन भी भारी मात्रा में होता है। वैसे तो पहाड़ी लोगों का चाय से एक बेहद ही गहरा रिश्ता है क्योंकि पहाड़ी लोगों की सुबह गर्म चाय की चुस्कियो के साथ ही शुरू होती है और शाम भी खुशनुमा चाय के साथ ही मुकम्मल होती है। उत्तराखंड में सर्वाधिक चाय का उत्पादन अल्मोड़ा जनपद में होता है लेकिन क्या कभी आपने सोचा है की यह चाय आखिर उत्तराखंड मे आई कैसे। तो चलिए आज आपको रुबरु करवाते है उत्तराखंड मे उत्पन्न होने वाली चाय से।
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दरअसल चाय की शुरुआत चीन से मानी जाती है और कहा जाता है कि आज से लगभग 2700 साल पहले इत्तेफाकन हुई एक घटना ने इंसान को चाय का चस्का लगा दिया था। ऐसा कहा जाता है कि चीन के राजा शेनुंग के लिए उनके बगीचे में पानी गर्म किया जा रहा था तभी चाय का एक पत्ता उड़कर गरम पानी से भरे एक छोटे बर्तन में आ गिरा जिसके कारण पानी का रंग कुछ परिवर्तित हो गया और उसमें मनमोहन खुशबू आने लगी। तभी राजा शैनुंग इस पानी का स्वाद चखा तो उन्हें यह बेहद पसंद आया इसके बाद वह इस पेय का सेवन रोजाना करने लगे और अपने साथियों को भी इसे पिलाने लगे यही से चाय पीने का चलन शुरू हुआ और आज स्थिति यह है कि एक रिसर्च के मुताबिक पानी के बाद दुनिया में सबसे अधिक पिया जाने वाला पेय चाय ही माना जाता है।
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आपको बता दे चीन में पैदा हुई चाय के चीन से बाहर निकालने की भी एक दिलचस्प कहानी है। दरअसल एक समय तक चाय पर चीन का एकाधिकार हुआ करता था अंग्रेजों को चाय का चस्का तो लग चुका था लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी को भी चीन से ही चाय खरीदनी पड़ती थी। लंबे समुद्री रास्तों से निर्यात होने वाली चाय काफी महंगी पड़ती थी लिहाजा अंग्रेज किसी भी तरह से चीन से चाय के पौधे और इसकी खेती की तकनीक को हासिल करने की फिराक में थी। इसी के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी ने रॉबर्ट फॉर्चून नाम के एक जासूस को चीन भेजा रॉबर्ट चाय की पौध चुराने और इसकी पैदावार की तकनीक सीखने में कामयाब भी रहा। इसके बाद ही अंग्रेजों ने दुनिया भर में चाय की पैदावार और इसकी बिक्री शुरू कर दी थी। भारत में चाय लाने का श्रेय भी अंग्रेजों को ही जाता है वर्ष 1815 के आसपास उन लोगों के जरिए चाय भारत पहुंची थी हालांकि नॉर्थ ईस्ट के कुछ इलाकों में जैसे दार्जिलिंग असम में चाय जंगली घास के रूप में पहले से मौजूद थी और वहां के लोग इसे पेय के रूप में प्रयोग किया करते थे।
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उत्तराखंड में चाय का सफर:  uttarakhand tea history hindi

बता दे वर्ष 1827 में डॉ रॉयल, जो कि सहारनपुर में सरकारी वानस्पतिक उद्यान में बतौर अधीक्षक कार्यरत थे, उन्होंने सरकार से ये आग्रह किया कि कुमाऊं क्षेत्र की ऐसी जमीनें जो बंजर पड़ी हुई हैं और जिन पर खेती नहीं की जाती, उन्हें गांव-वालों से लेकर चाय की खेती के लिए अंग्रेजों को सौंप दिया जाए। बता दे चाय की खेती को सरकार की ओर से काफी प्रोत्साहित किया गया और 1830 से 1856 के बीच ब्रिटेन से कई सारे परिवार रानीखेत ,भवाली ,अल्मोड़ा, कौसानी रामगढ़ ,मुक्तेश्वर जैसी जगह में बसने लगे और सरकार द्वारा चाय एवं फलों की खेती के लिए इन लोगों को जमीनी भेंट स्वरूप दी जा रही थी। उनका मानना था कि गढ़वाल और कुमाऊं की ठंडी जलवायु में जब चाय की खेती की जाएगी, तो यहां इसकी बढ़िया और स्वादिष्ट किस्म पनपेगी। इसके बाद वर्ष 1834 में गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा बनाई गई समिति के विशेषज्ञों ने उपजाऊ भूमि का चुनाव करना शुरू किया और विशेषज्ञों द्वारा चीन से चाय के स्पेशलिस्ट बुलाए गए और खेती में उनकी मदद की गई। बता दे उत्तराखंड में चाय का उत्पादन तेजी से बढ़ने लगा था और वर्ष 1843 में जहां कुमाऊं में चाय का कुल उत्पादन 190 पाउंड के आसपास था वहीं अगले वर्ष बढ़कर 375 पाउंड हो चुका था। आपको बता दें कि वर्ष 1835 में कलकत्ता से दो हजार पौधों की पहली खेप कुमाऊँ लाई गई जिसमें अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर और भीमताल के पास भरतपुर में चाय की पौधशालाएं स्थापित की गई।
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उत्तराखंड में चाय का सबसे ज्यादा उत्पादन अल्मोड़ा मे होता है इसके अलावा बागेश्वर के कौसानी स्थित चाय बागान में होता है। कौसानी में 400 हेक्टेयर क्षेत्रफल में चाय की खेती हो रही है और करीब 50 हजार किलो चाय का उत्पादन किया जाता है। इसके अलावा चंपावत में 202 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 8,700 किलो चाय, घोड़ाखाल में 108 हेक्टेयर क्षेत्रफल में करीब दस हजार किलो और गढ़वाल में 1.69 हेक्टेयर क्षेत्रफल में नौ हजार किलो चाय तैयार की जाती है।

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Sunil

सुनील चंद्र खर्कवाल पिछले 8 वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे राजनीति और खेल जगत से जुड़ी रिपोर्टिंग के साथ-साथ उत्तराखंड की लोक संस्कृति व परंपराओं पर लेखन करते हैं। उनकी लेखनी में क्षेत्रीय सरोकारों की गूंज और समसामयिक मुद्दों की गहराई देखने को मिलती है, जो पाठकों को विषय से जोड़ती है।

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