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उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले के देवीधुरा में बग्वाल मेले में फलों के साथ बरसे पत्थर, क्या है इतिहास





उत्तराखण्ड अपनी संस्कृति और रीती रिवाजो से भारत में एक अनूठी पहचान रखता है जैसे की उत्तराखण्ड एक सुन्दर पर्वतीय राज्य होने के साथ साथ बहुत से धार्मिक स्थलों का समूह भी है। अगर बात करे के यहां के त्योहारों की तो हर त्योहार का अपना एक विशेष पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। उत्तराखण्ड के चम्पवात जिले के देवीधुरा में प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन पर बग्वाल मेला लगता है जिसे पत्थर युद्द भी कहते है।




हर साल की तरह इस साल भी रक्षाबंधन के मौके पर देवीधुरा में फल और फूलों से बग्वाल खेला गया। खाश बात तो ये रही की बारिश होने के बावजूद भी खोलीखाड़ दुर्वाचौड़ मैदान रणबांकुरों से खचाखच भरा हुआ नजर आया। इस युद्ध का लुत्फ उठाने के लिए देश-विदेश से भी लोग यहां पहुंचे। रक्षा बंधन पर्व पर देवीधुरा स्थित मांं बाराही देवी के आंगन खोलीखाड़ दुबाचौड़ में असाड़ी कौतिक पर झमाझम बारिश के बीच चारों खामों के रणबांकुरों ने बग्वाल पूरे जोश के साथ खेला। इस दौरान उन्होंने एक दूसरे पर जमकर फल और फूल बरसाए। हालांकि, कुछ लोगों ने पत्थरों का भी इस्तेमाल। जिससे चार दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए। बगवाल 2:38 पर शुरू हुई और 2:46 पर समाप्त हुई। इस बार बग्वाल सात मिनट 57 सेकंड चली।




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माँ वाराही का देवीधुरा मंदिर – श्रावण मास की पूर्णिमा को हज़ारों श्रद्धालुओं को आकर्षित करने वाला पौराणिक धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थल देवीधुरा अपने अनूठे तरह के पाषाण युद्ध के लिये पूरे भारत में प्रसिद्ध है। श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन जहाँ समूचे भारतवर्ष में रक्षाबंधन के रूप में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है वहीं हमारे देश में एक स्थान ऐसा भी है जहाँ इस दिन सभी बहनें अपने अपने भाइयों को युद्ध की रणभूमि के लिये तैयार कर, युद्ध के अस्त्र के रूप में उपयोग होने वाले पत्थरों से सुसज्जित कर विदा करती हैं। यह स्थान है उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत का सिद्धपीठ माँ वाराही का देवीधुरा स्थल। लोहाघाट से साठ किलोमीटर दूर स्थित है शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर जिसे देवीधुरा के नाम से जाना जाता हैं।




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क्या है ऐतिहासिक महत्व –
ऐसी मान्यता है कि जब सृष्टि रचना से पूर्व सम्पूर्ण पृथ्वी जलमग्न थी तब प्रजापति ने वाराह बनकर उसका दाँतो से उद्धार किया उस स्थिति में अब दृष्यमान भूमाता दंताग्र भाग में समाविष्ट अंगुष्ट प्रादेश मात्र परिमित थी। ‘‘ओ पृथ्वी! तुम क्यों छिप रही हो?’’ ऐसा कहकर इसके पतिरूप मही वाराह ने उसे जल मे मघ्य से अपने दन्ताग्र भाग में ऊपर उठा लिया। यही सृष्टि माँ वाराही के रूप में जानी जाती हैं। माँ वाराही देवी मंदिर के मंदिर की मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है की महाभारत काल में यहाँ पर पाण्डवों ने वास किया था और पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ये शिलायें ग्रेनाइट की बनी हुई थी और इन्ही शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के द्वार के निकट मौजूद हैं ।इन दोनों शिलाओं में से एक को “राम शिला” कहा जाता है और इस स्थान पर “पचीसी” नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं, और दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।
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क्या है विशेषता-  इस पत्थरमार युद्ध को स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहा जाता है। यह बग्वाल कुमाऊ मंडल की संस्कृति का एक  अभिन्न अंग है। श्रावण मास में पूरे पखवाड़े तक यहाँ मेला लगता है। जहाँ सबके लिये यह दिन रक्षाबंधन का दिन होता है वहीं देवीधुरा में यह दिन पत्थर-युद्ध अर्थात् ‘बग्वाल का दिवस’ के रूप में प्रसिद्ध है। मंदिर के गुफा प्रवेश द्वार पर दो विशाल और सकरी चट्टानें हैं जिनके बीच से निकले के लिए बहुत ही कम जगह है। दोनो चट्टानों के मध्य के खाली जगह पर ही “देवी पीठ” है। माँ वाराही देवी के मुख्य मंदिर में तांबे की पेटिका में मां वाराही देवी की मूर्ति है। माँ वाराही देवी के बारे में यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ति के दर्शन खुली आँखों से नहीं कर सकता है , क्योकि मूर्ति के तेज से उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है । इसी कारण “देवी की मूर्ति” को ताम्रपेटिका में रखी जाती है।
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