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पिथौरागढ़

जज्बे को सलाम :पति की शहादत के बाद पहाड़ों में अन्य महिलाओं का जीवन सवांर रही हैं कंचन

सीढियाँ उन्हें मुबारक हों,
जिन्हे सिर्फ छत तक जाना है,
मेरी मंज़िल तो आसमान है,
रास्ता मुझे खुद बनाना है।
ये चंद पंक्तियां शादी के 11 महीने बाद ही शहीद हुए देश के वीर जवान हरीश कापड़ी की पत्नी कंचन कापड़ी पर बिल्कुल सटीक बैठती है जिनका कहना है कि- “जीने के लिए शहीद पति की यादें ही काफी होती है और फिर सास का मेरे अलावा कोई सहारा भी तो नहीं था, ऐसे में मन में दूसरी शादी करने का ख्याल कैसे आता।” कंचन की शादी 19 वर्ष की उम्र में पिथौरागढ़ जिले के दौला गांव निवासी हरीश कापड़ी के साथ 6 दिसंबर 2002 को हुई थी। कंचन के पति हरीश उस समय सेना में तैनात थे और शादी के 11 महीने बाद ही नवंबर 2003 में उनके वीरगति को प्राप्त होने का दुखद समाचार आ गया। ऐसे दुखद समाचार से कोई भी टूट सकता है, कंचन के साथ भी ऐसा ही हुआ। मुश्किल की इस घड़ी में कंचन को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे। ऐसी दुःख की घडी में भी खुद को संभालते हुए उन्होंने बूढ़ी सासू मां के आंसू पोछकर अपने साहस का परिचय दिया। महिला दिवस पर आज हम उसी विरांगना नारी के संघर्षों की कहानी आपको बता रहे हैं।




नए वैवाहिक जीवन के सपने और वो उमंग भरी जिन्दगी जीने कि चाह बस अब ये सब कंचन की नई दुनिया से धूमिल होता हुआ नजर आ रहा था। बस अब बचा था तो सिर्फ और सिर्फ संघर्ष। कंचन ये संघर्ष भरी राह चुनने में बिल्कुल भी नहीं डगमगाई। छोटी सी उम्र में ही पति का‌ साथ छूट जाने के बाद भी कंचन ने पति की यादों के सहारे जिन्दगी गुजारने और पति को दिया हुआ वचन जिन्दगी के अंतिम क्षणों तक निभाने का फैसला किया। यह वहीं वचन था जो हरीश ने शादी के बाद कंचन से लिया था। दर‌असल, पिता की मौत के बाद माता-पिता की इकलौती संतान हरीश ने स्वयं को आत्मनिर्भर तो बनाया ही साथ ही साथ वह अपनी बुजुर्ग मां का सहारा भी बने। इसके साथ ही उन्होंने कंचन से भी यह वचन लिया कि वह मां को सास नहीं, मां मानकर मान-सम्मान और स्नेह देंगी। इसी वचन को ध्यान में रखकर उन्होंने घर पर ही कढ़ाई-बुनाई और ब्यूटी पार्लर का काम शुरू कर जीवन यापन करने का निर्णय लिया।




धीरे-धीरे उनका यह काम नई-नई ऊंचाइयों को छूने लगा। खुद आत्मनिर्भर बनने के बाद उन्होंने शहर की जरूरतमंद महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनाने का भी निश्चय किया। इसी क्रम में अब तक वह जिले की 250 से भी अधिक महिलाओं को कढ़ाई-बुनाई और पार्लर का प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बना चुकी है। कंचन की यह संघर्षपूर्ण कहानी उन सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो जिन्दगी की परेशानियों से डरकर ही हार जाते हैं। पति की शहादत को याद कर कंचन कहती है कि जिस दिन पति का पार्थिव शरीर घर पर पहुंचा वह 6 दिसंबर का दिन उनकी जिंदगी का सबसे लंबा दिन था। बार-बार पति का मुस्कराता हुआ चेहरा याद आ रहा था। मन कर रहा था कि फूंट-फूंटकर रोऊं लेकिन मैं आंसू बहाती तो मां और टूट जातीं। महिला दिवस पर हम ऐसी विरांगना नारी और उनके जज्बे को सलाम करते हैं।




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