उत्तराखण्ड की पावन धरती पर गंगोलीहाट(Gangolihat) में विराजमान हैं हाटकालिका सिद्धपीठ(Haat kalika Temple), आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी स्थापना, कुमाऊं रेजिमेंट की आराध्य देवी है हाट कालिका..
उत्तराखंड को देवभूमि इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां पर कई शक्तिपीठ, तीर्थ स्थल और ज्योतिर्लिंग विद्यमान है, इसके अलावा राज्य में कई ऐसे मंदिर है जो अपने आप में कई रहस्यों को समेटे हुए है, ऐसा ही एक सिद्धपीठ है कालिका मंदिर, जो “हाटकालिका” के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर पिथौरागढ़ जिले की गंगोलीहाट(Gangolihat) तहसील में प्रसिद्ध पाताल भुवनेश्वर गुफा से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, कहा जाता है कि इस प्रसिद्ध सिद्धपीठ की स्थापना “आदि गुरु शंकराचार्य” ने की थी। बता दें कि सरयू गंगा तथा राम गंगा के मध्य स्थित होने के कारण पूरे गंगोलीहाट क्षेत्र को प्राचीन समय में गंगावली कहा जाता था, जो धीरे-धीरे बदलकर गंगोली हो गया, स्थानीय मान्यताओं के अनुसार “हाटकालिका देवी”(Haat kalika temple) रणभूमि में गए जवानों की रक्षा करती है, हाटकालिका में विराजमान महाकाली भारतीय सेना के कुमाऊँ रेजिमेंट के जवानों की आराध्या है। इस रेजिमेंट के जवान किसी युद्ध या मिशन में जाने से पहले मन्दिर के दर्शन ज़रूर करते है और कुमाऊं रेजिमेंट का युद्धघोष भी कालिका मैया की जय ही है। यही कारण है कि यहाँ के धर्मशालों में किसी ना किसी आर्मी अफ़सर का नाम ज़रूर मिल जाता है। बताया जाता है कि 1971 में पाकिस्तान के साथ छिड़ी जंग के बाद कुमाऊँ रेजिमेंट के सुबेदार शेर सिंह के नेतृत्व में यहॉ महाकाली की मूर्ति की स्थापना हुई, इसके बाद कुमाऊँ रेजिमेंट ने साल 1994 में भी यहां एक बड़ी मूर्ति चढ़ाई थी।
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स्कंद पुराण में भी मिलता है इस प्रसिद्ध शक्तिपीठ का उल्लेख, मां के दर्शन मात्र से दूर होती है रोग, शोक और दरिद्रता:-
बता दें कि पिथौरागढ़ जिले की गंगोलीहाट तहसील में स्थित हाटकालिका शक्तिपीठ देवदार के पेड़ों से चारों तरफ़ से घिरा हुआ है। पौराणिक दृष्टि से भी यह शक्तिपीठ महत्वपूर्ण है, स्कंदपुराण के मानस खंड में भी यहाँ का उल्लेख मिलता है। मान्यता के अनुसार यहॉ रात्रि में मॉ कालिका का डोला चलता है, डोले के साथ आंण, बांण व गण की सेना भी चलती है। कहा जाता है कि जो इस डोले को छू लेता है तो उसे दिव्य वरदान की प्राप्ति होती है। “हाट कालिका” मंदिर के बारे में यह भी बताया जाता है कि यहाँ पर ‘माँ काली’ विश्राम करती है, यही कारण है कि शक्तिपीठ के पास ही माँ की शैय्या लगायी जाती है, कहते है कि सुबह उस शैय्या में सिलवटें पड़ी होती है जो संकेत देती है कि यहा किसी ने विश्राम किया था। वैसे तो हर अष्टमी को बड़ी संख्या में लोग यहा आते है परन्तु चैत्र और आश्विन की नवरात्रों में विशेषकर अष्टमी के दिन यहा मेला लगता है, कलकत्ता के काली मन्दिर के सदृश ही इसकी मान्यता भी है। यहा पर प्रसिद्ध हाटकाली का मेला लगता है, उस समय यह जगह रंगो में डुब जाती है और चारों ओर ढोल की आवाज़ें होती है। यहा जो भी महाकाली के चरणों में श्रद्धा पुष्प अर्पित करता है वह रोग,शोक और दरिद्रता से दूर हो जाता है,यही हाटकाली माँ की महिमा है।
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