पहाड़ी फलो का राजा काफल: स्वाद में तो लाजवाब साथ ही गंभीर बीमारियों के लिए रामबाण इलाज
काफल पाको मैं नि चाख्यो , पूर पुतई पूरे पूर-:
काफल के पकने पर पर्वतीय क्षेत्रों में आज भी एक चिड़िया ‘काफल पाको मैं नि चाखों’ कहते हुए सुनी जाती है जिसका अर्थ है कि काफल पक गए लेकिन मैंने नहीं चखे। जिसके प्रत्युत्तर में दूसरी चिड़िया द्वारा गाते हुए कहां जाता है कि ‘पूर पुतई पूरे पूर’ अर्थात पूरे हैं बेटी, पूरे हैं’। दोनो चिड़ियों के काफल के बारे में आज भी गाने के पीछे एक मार्मिक लोककथा जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि कालान्तर में यह दोनों चिड़ियाएं मां और बेटी थी। दोनों एक गरीब घर से थी और उन दोनों का एक-दूसरे के अलावा कोई सहारा नहीं था। गर्मियों में उनकी आजिविका का सहारा एकमात्र जंगलों में पकने वाले यही काफल थे। वह जंगल से काफल तोड़कर लाती और उसे बाजार में बेचती थी जिससे उसे अच्छी आमदनी हो जाती थी। एक दिन की बात है वह महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई। सुबह का समय होने के कारण वह कुछ समय बाद जानवरों का चारा लेने के लिए दुबारा जंगल चलें गई और जंगल की ओर जाते हुए उसने अपनी बेटी से कहा कि मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना।’ तेज धूप होने के कारण मां के आने तक काफल टोकरी में आधे से भी कम हो गई जब उस महिला ने जंगल से आकर यह देखा तो वह गुस्से से लाल हो गई उसने अपनी बेटी से पूछा कि क्या तूने टोकरी में से काफल खाएं तो बेटी ने साफ-साफ मना किया। बेटी के बार-बार मना करने पर महिला का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने बेटी पर इतनी जोर से प्रहार किया कि बेटी ने वहीं पर दम तोड दिया शाम होते होते टोकरी फिर से काफलों से भरने लगी जिसे देखकर महिला को आत्मग्लानि हुई और वह भी पछतावे के कारण मौत के घाट सिधार गई। कहते हैं कि यह दोनों मां-बेटी ही आजतक दो चिड़ियाओं के रूप में अपनी बातें कहते हैं।