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Syalde Bikhauti Mela Dwarahat

उत्तराखण्ड विशेष तथ्य

Syalde Bikhauti Mela Dwarahat: द्वाराहाट के स्याल्दे बिखोती मेले का ऐतिहासिक महत्व है खास

Syalde Bikhauti Mela Dwarahat: चैत्र महीने की अंतिम रात्रि विषुवत संक्रांति को प्रतिवर्ष द्वाराहाट से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित विभामंडेश्वर महादेव के मन्दिर मे मेला आयोजित होता है स्याल्दे बिखोती मेला….

Syalde Bikhauti Mela Dwarahat
देवभूमि मे विभिन्न प्रकार के त्योहारों और मेलों का आयोजन का हर वर्ष किसी शुभ अवसर पर भव्य तरीके से किया जाता है क्योंकि यह उत्तराखंड की संस्कृति और परंपरा मानी जाती जो अन्य राज्यों के लोगों को भी बेहद पसन्द आती है। ऐसे ही कुछ विशेष संस्कृति व ऐतिहासिक महत्व अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट में लगने वाले स्याल्दे बिखोती मेले का भी है जिसका आयोजन बैसाखी के शुभ अवसर पर किया जाता है। आपको जानकारी देते चलें इस मेले का आयोजन कत्यूरी राजाओं के काल से ही शिव और शक्ति की आराधना के साथ राज्य की सैन्य शक्ति के प्रदर्शन और संवर्धन की गतिविधियों से जुड़ा राजकिया मेला माना जाता है। जो पाली पछाऊं क्षेत्र की सांस्कृतिक परंपराओं को सन्जोने और लोक संस्कृति के उन्नयन का सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व भी माना जाता है।
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दरअसल यह मेला चैत्र महीने की अंतिम रात्रि विषुवत संक्रांति को प्रतिवर्ष द्वाराहाट से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित विभामंडेश्वर महादेव के मन्दिर मे मेला आयोजित होता है इस दौरान पूरी रात लोग नृत्य गायन, झोडे, भगनौल जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इसके दूसरे दिन बैसाख एक गते को द्वाराहाट में ‘बाट् पूजै ’ मेला लगता है और बैसाख दो गते को स्याल्दे बिखोत का मुख्य मेला होता है। इसमें विभिन्न गांवों के लोग अपने समूह बनाकर नगाडे और निशाण के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करने पोखर के निकट स्थित ‘शीतला देवी’ के मंदिर में पहुंचते हैं। यहां मुख्य रस्म ओड़ा भेंटने की होती है। शीतला देवी का कुमाऊनी भाषा में अपभ्रंश स्याल्दे’ कहलाता है। इस स्याल्दे मेले की परंपरा कितनी प्राचीन है इसका निश्चित रूप से पता नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि द्वाराहाट बाजार में शीतला देवी के प्राचीन मंदिर प्रांगण में आयोजित होने के कारण ही इस मेले को स्याल्दे मेला कहा जाता है।
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बता दें पं. बद्रीदत्त पाण्डे ने अपने ग्रंथ ‘कुमाऊं का इतिहास’ में शीतला देवी के मन्दिर निर्माण का काल कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय संवत् 1179 निर्धारित किया है। इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह अनुमान लगाना सहज है कि कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय से द्वाराहाट में शीतला देवी के मंदिर प्रांगण में स्याल्दे मेले की शुरुआत हुई होगी। पूरे भारत में ही प्राचीन काल से शीतला माता की पूजा अर्चना का प्रचलन रहा है उत्तराखंड में आदिशक्ति को मात्र स्वरूप मानकर उनकी अनेकों रूपों की पूजा की जाती है इन्हीं में एक है ‘स्याल्दे’ के रूप में पूज्या भगवती शीतला माता, जिन्हें आरोग्य प्रदायिनी और स्वच्छता की देवी माना जाता है। इतना ही नही द्वाराहाट में स्थित इस मंदिर में श्रद्धालु जन संतान के आरोग्य और दीर्घायु के लिए पूजा-अर्चना करते हैं साथ ही ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की पूजा-अर्चना करने से दाहज्वर, पीतज्वर, दुर्गन्धयुक्त फोडे-फुंसियां, चेचक महामारी आदि समस्त संक्रामक रोग दूर हो जाते हैं।
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विशेष तथ्य:-

‘स्याल्दे बिखौती’ मेले का इतिहास उत्तराखंड की गौरवशाली लोक परंपरा व संस्कृति से जुड़ा हुआ है। यह पर्व कूर्मांचल के अतीत गौरव राजा एवं प्रजा के बीच बेहतर तालमेल तथा सामरिक कौशल के कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित कौतिक भी है जिसे सांस्कृतिक नगरी द्वाराहाट सदियों से एक पुरातन धरोहर के रूप में संरक्षित किए हुए हैं। कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय से ही द्वाराहाट में शीतला देवी के मंदिर प्रांगण में स्याल्दे मेले की शुरुआत हुई ।कत्यूरी शासकों की वीरतापूर्ण गतिविधियों के साथ स्याल्दे बिखौती की ‘कौतिक’ परंपरा को कालांतर में चंद वंशीय राजाओं ने धरोहर की भांति संरक्षित किया। इसे बतौर विरासत कुमाऊं (कूर्माचल) के 31 परगनों तक विस्तार दिया और गढ़वाल (केदारखंड) से भी इस मेले के सांस्कृतिक सूत्र जुड़ते गए। मानिला में भी स्याल्दे बिखोति मेले का आयोजन होने लगा। द्वाराहाट क्षेत्र के लोग इस मेले के माध्यम से न केवल अपने पुरातन परंपराओं और कला संस्कृति को जीवित रखते आए हैं बल्कि यहां के लोक गायक तथा लोक कलाकारों ने कुमाऊनी साहित्य विशेष कर पाली पछाऊं के लोक साहित्य की समृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

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