बच्चों और प्रकृति से जुड़ा उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई का विशेष महत्व PHULDEI FESTIVAL
Phuldei Festival: उत्तराखंड में बच्चों और प्रकृति से जुड़ा एक खास त्यौहार फूलदेई जानिए इसका विशेष महत्व
उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम हमेशा से ही एक आदर्श और शिक्षाप्रद रहा है, यहां की पवित्र भूमि पर अनेक लोगों ने कई आन्दोलनो द्वारा अपने प्रकृति प्रेम को अभिव्यक्त किया है फिर चाहे वो पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आन्दोलन। इसी प्रकार से यहां के वासी प्रकृति प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए कई स्थानीय त्योहार मनाते हैं , उन्हीं त्योहारो में से एक त्योहार प्रकृति का आभार व्यक्त करने के लिए मनाया जाता हैं जिसे कुमाऊनी लोग “फूलदेही” (Phuldei Festival) तथा गढ़वाली लोग “फुल संक्रांति” कहते हैं तथा फूल खेलने वाले बच्चो को फुलारी कहा जाता हैं।
यह त्योहार चैत्र मास के आगमन पर मनाया जाता है , हिन्दू धर्मग्रंथ के अनुसार इस दिन से हिन्दू नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है, यह त्योहार नववर्ष के स्वागत के लिए मनाया जाता है, इस वक्त उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में अनेक प्रकार के रंग बिरंगे फूल उगते हैं जिनमें प्योली, पुलम,आडू, बुरांश आदि पुष्पों की छटा बिखरती रहती है उन फूलों को बच्चे पेड़ो तथा जंगलों से तोड़कर लाते हैं और अपनी टोकरी में रखते है और उसके बाद वो पूरे गांव में घूम घूम कर गांव की हर देहली (दरवाजे) पर जाते है और उन फूलों से देहली का पूजन करते हैं, साथ में एक सुंदर सा लोकगीत भी गाते हैं।
फूल देई…..छम्मा देई
देणी द्वार….भर भकार…
उसके बाद घर के मालिक द्वारा बच्चों को चावल, गुड़, भेंट या अन्य उपहार देते हैं जिसे पाकर बच्चे बहुत प्रसन्न होते हैं, भेंट के रूप में मिले चावल और गुड़ के बच्चों के लिए अनेक पकवान बनाए जाते है।
फूलदेई त्योहार में द्वारपूजा के लिए एक जंगली पीले फूल का इस्तेमाल होता है, जिसे “प्योली” कहते हैं। इस फूल और फूलदेई के त्योहार को लेकर उत्तराखंड में कई लोक कथाएं मशहूर हैं। जिनमें से एक लोककथा कुछ यूं है ,जो कि प्योली के पीले फूलों से जुड़ी हैं, कहा जाता हैं कि प्राचीन काल में एक वनकन्या थी, जिसका नाम था प्योली। प्योली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे, जिसकी वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली और खुशहाली थी। एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। प्योली को राजकुमार से प्रेम हो गया। उसने राजकुमार से शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई।
प्योली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे ओर उधर महल में प्योली भी बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था…और एक दिन प्योली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से प्रार्थना की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे।
प्योली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर प्योली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक पीला फूल खिला, जिसे प्योली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया,उस के बाद से पहाड़ की खुशहाली” प्योली के पीले फूल”के रूप में लौट आई।
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