उत्तराखंड में मां गर्जिया देवी को पूजा जाता है शैलपुत्री हिमालय की पुत्री पार्वती के रुप में…
गर्जिया माता मंदिर का इतिहास
गर्जिया माता मन्दिर का इतिहास बहुत पौराणिक माना जाता है यहां कुर्मांचल की सबसे प्राचीन बस्ती ढिकुली थी जहां पर वर्तमान समय में रामनगर बसा हुआ है| कोसी के किनारे बसी इस नगरी का नाम तब बैराड़ बदन या परत नगर था कत्यूरी राजाओं के आने से पूर्व यहां पहले गुरु राजवंश के राजा राज करते थे जो प्राचीन इंद्रप्रस्थ आधुनिक दिल्ली साम्राज्य की छत्रछाया में रहते हैं। गर्जिया क्षेत्र का लगभग 3000 वर्षों का अपना इतिहास रहा है, प्रख्यात कत्यूरी राजवंश, चंद्र राजवंश गोरख वंश विशेष है इन सभी ने यहां की पवित्र भूमिका सुख भोगा है। वर्ष 1940 से पूर्व यह भयंकर जंगलों से भरा पड़ा था सर्वप्रथम जंगल जंगलात विभाग के कर्मचारियों और कुछ लोगो द्वारा टीले पर मूर्ति को देखा गया था | जंगलात के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी यहां पर आए कहा जाता है की टीले के पास मां दुर्गा का वाहन शेर भयंकर गर्जना किया करता था कई बार शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुए भी लोगों द्वारा देखा गया है। जिस टीले पर गर्जिया माता मंदिर स्थित है वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपर से बहकर आ रहा था, मंदिर को टीले के साथ बहते हुए देख भैरव देव द्वारा उसे रोकने का प्रयास किया गया ” थि रौ, बहना” थि रौ, अर्थात ठहरो बहन ठहरो यहां पर मेरे साथ निवास करो तभी से गर्जिया में देवी उपटा में निवास कर रही है। माना जाता है कि इस मंदिर में जो एक बार आता है उसकी मनोकामना माता जरूर पूरी करती है। यहां पर स्त्रियां जाकर अटल सुहाग की कामना करती है तथा निसंतान दंपती संतान प्राप्ति के लिए माता के चरणों में झोली फैलाती हैं।यहीं पर भैरवनाथ का मंदिर भी स्थित है जो बिना देवी की पूजा अधूरी मानी जाती है। ये मन्दिर माता पार्वती को समर्पित हैं। गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उन्हें गिरजा नाम से बुलाया जाता है ।
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