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Uttarakhand Khatarua Festival in Kumaon Division

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आज मनाया जाएगा उत्तराखण्ड के कुमाऊं क्षेत्र में खतडुवा त्यौहार, जानिए इसका विशेष महत्व

उत्तराखण्ड में खतडुवा पर्व (Khatarua Festival) है, शरद ऋतू के आगमन का प्रतीक और पशुपालकों के लिए रखता है विशेष महत्व…

उत्तराखंड की संस्कृति और परम्पराएँ अनमोल हैं यहॉ पर प्रमुख देवी देवताओं के अलावा स्थान देवता, वन देवता तथा पशु देवता को भी पूजने का प्रावधान है जिससे साबित होता है कि यहाँ के लोग प्रकृति के कितने क़रीब है वैसे तो यहाँ कई प्रकार के पर्व मनाते है लेकिन पशुधन को समर्पित पर्व “खतडुवा” (Khatarua Festival) कुमाऊँ क्षेत्र में हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है जिसे पशुओं की मंगलकामना का पर्व भी कहा गया है, वर्षा ऋतू के समाप्त होने तथा शरद ऋतु के आरम्भ में यानि आश्विन माह के पहले दिन को “खतडुवा (गाईत्यार)” मनाते है। गॉव के युवा बच्चे कुछ दिन पूर्व से ही एक ऊँचे स्थान पर लकड़ियों तथा सुखी घास का एक ढेर बनाते है जो खतडुवा के दिन जलाया जाता है और मसाल जलते समय सभी लोग ककड़ी और अखरोट एक दूसरे को बाटते और खाते है।  इस दिन कई लोकोक्ति कही जाती है जैसे:
“भैलो खतडुवा भैलो
गै की जीत,खतडुवा की हार
भाग खतडुवा भाग”

एक मत ऐसा भी जिसका इतिहास में कोई प्रमाण और उल्लेख नहीं
वैसे तो इस पर्व के पीछे कई मत है, लेकिन यहाँ के बूढ़े बुजुर्गो द्वारा यह भी कहा जाता है कि कई वर्ष पूर्व कुमाऊँ तथा गढ़वाल के बीच युद्ध हुआ जिसमें कुमाऊँ का नेतृत्व गैंडा सिंह तथा गढ़वाल का नेतृत्व खतड सिंह कर रहा था। इस युद्ध में खतड सिंह हार गया तभी से कुमाऊं मंडल में खतडुवा मनाया जाने लगा, लेकिन इसका कोई भी ऐतिहासिक परिमाण और कोई उल्लेख नहीं है इसलिए यह बात सिर्फ एक मिथ्या तक ही सिमित रह गयी। इसके साथ ही यह पर्व कुमाऊँ क्षेत्र पशुपालकों के अलावा नेपाल, दार्जिलिंग तथा सिक्किम के पशुपालकों द्वारा भी मनाया जाता है
“लुतो लागयो, लुतो भाग्यों “
इन पंक्तियो को नेपाल के लोग खतडुवा के दिन एक साथ ज़ोर से बोलते जिसका अर्थ है बरसात में जो जानवरों को लुता(बाल गिरने की बीमारी) होती है वो ख़त्म हो जाए।
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उत्तराखण्ड में कम उपजाऊ ज़मीन होने के बावजूद शुरुआत से ही कृषि और पशुपालन अजीविका के मुख्य आधार है, यहॉ आज भी कृषि पशुपालन से सम्बन्धित कई लोक पर्व मनाते है ऐसा ही एक लोक पर्व है “खतडुवा “ इस शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातडि़” से हुई जिसका अर्थ रज़ाई या गरम कपड़े से हैं, पहाड़ो में सितम्बर महीने से ही ठण्ड पड़नी शुरु हो जाती है, और गर्म बिस्तर (खातड़) वगैरह उपयोग में लाया जाना शुरू किया जाता है, इसलिए एक प्रकार से पहाड़ो में शरद ऋतू के आगमन का प्रतीक भी है खतडुवा।
बता दे कि इस दिन लोग भांग की लकड़ी में कपड़ा बाँध कर उसमें आग लगाते है और गोशाला के अन्दर घुमाते हुए “भैलो – भैलो”कहते है जिससे वहा के कीट-कीटाणु सब नष्ट हो जाए, उस मसाल को ले जा कर पहले से ही एकतित्र किए गए लकड़ी और घास के ढे़र को जलाते हैं और सभी रोगों और कीटणुओं के नष्ट होने की कामना करते हैं, साथ ही इस दिन ककड़ी और अखरोट भी खाते है ,तो ज़रा सोचिए कैसे परंपराओं से भरी है उत्तराखंड की भूमि, यही वजह है जिसके कारण उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है।
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