उत्तराखण्ड विशेष तथ्य
उत्तराखंड: धूमिल होती जागर परंपरा को संजो रहे हैं रामनगर के हेम चंद |Hem chu pahadi|
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hem chand chu pahadi ramnagar HDDUS nainital Preserves Jagar Tradition interview uttarakhand news: नैनीताल जिले के रामनगर के रहने वाले हैं हेमचंद, इंजीनियरिंग करने के पश्चात जुटे हैं पहाड़ी सभ्यता संस्कृति को बचाने के प्रयास में….
hem chand chu pahadi ramnagar HDDUS nainital Preserves Jagar Tradition interview uttarakhand news: उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर में जागर विधा का विशेष स्थान रहा है। समय के साथ जहाँ यह लोक परंपरा धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही है, वहीं कुछ युवा इसे बचाने और नई पीढ़ी तक पहुँचाने के प्रयासों में लगे हैं। रामनगर निवासी हेमचंद उन्हीं युवाओं में से एक है, जोकि इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से हैं।
पढ़िए देवभूमि दर्शन संवाददाता द्वारा इनके साक्षात्कार के प्रमुख अंश
हेम चंद लगातार विभिन्न मंचों, सोशल मीडिया और संवाद के माध्यम से जागर की महत्ता और इससे जुड़ी परंपराओं को उजागर कर रहे हैं। देवभूमि दर्शन के साथ हेम चंद के एक साक्षात्कार से जुड़े हुए कुछ प्रश्न हम अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं।
प्रश्न 1: आपका पूरा नाम, वर्तमान निवास। आप वर्तमान में किस क्षेत्र में कार्य करते हैं? आपकी शिक्षा का स्तर?
उत्तर: मेरा पूरा नाम हेमचंद है। मैं वर्तमान में नैनीताल जिले के रामनगर शहर में निवास करता हूँ। समाज सेवा के उद्देश्य से मैंने HDDUS Care Foundation नामक एक पंजीकृत ट्रस्ट/एनजीओ की स्थापना की है। इस संस्था के माध्यम से हम उत्तराखंड की जागर–परंपरा, देवस्थलों की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण, तथा विभिन्न सामाजिक सेवा कार्यों को बढ़ावा देने के लिए निरंतर कार्यरत हैं। मेरी शैक्षिक योग्यता मैकेनिकल डिप्लोमा इंजीनियरिंग है, और मैं अपने अनुभव व ज्ञान का उपयोग समाज की भलाई और सांस्कृतिक संरक्षण के कार्यों में कर रहा हूँ।
प्रश्न 2: क्या आपको लगता है कि आपकी जागर विधा की वीडियो और जानकारी के माध्यम से समाज के युवा वर्ग के लिए कुछ विशेष संदेश जा रहा है???
उत्तर:- जी हाँ, मुझे लगातार ऐसा महसूस होता है कि मेरी जागर-विधा की वीडियो और कहानियों के माध्यम से समाज के युवा वर्ग तक एक विशेष और सकारात्मक संदेश पहुँच रहा है। मुझे बहुत से लोगों से प्रतिक्रिया मिलती है। कई लोग कहते हैं कि “हेम भाई, आपकी कहानी सुनकर आँखें भर आती हैं” और कई परिवार बताते हैं कि “हमारे माता-पिता आपकी कहानियाँ बड़े प्रेम से सुनते हैं।” मेरी YouTube पर आने वाली कहानियाँ जमीन से जुड़े लोगों की होती हैं—वे उत्तराखंड के हर व्यक्ति के जीवन का हिस्सा हैं, इसलिए लोग खुद को उन कहानियों में महसूस करते हैं। यही जुड़ाव उन्हें बार-बार जोड़कर रखता है।
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मैं हमेशा मानता हूँ कि एक पेड़ अपनी जड़ों को तभी याद रखता है जब उसकी जड़ों तक पानी पहुँचता है। हम उसी तरह अपनी संस्कृति और परंपराओं की जड़ों में पानी डालने का कार्य कर रहे हैं। जब जड़ें मजबूत होंगी, तो पेड़ अवश्य फल-फूलेंगे—फसल पकेगी, दाना गिरेगा, और फिर एक नया पेड़ पैदा होगा। इसी सोच के साथ हम अपनी संस्कृति, अपनी जमीन और अपनी पहचान को आगे बढ़ा रहे हैं।
प्रश्न 3: क्या आपको ऐसा लगता है कि उत्तराखंड की परंपरागत जागर शैली वर्तमान जागर विधा से अलग थी , आप इसे किस नजरिए से भिन्न देखते हैं?
उत्तर:- मुझे ऐसा लगता है कि उत्तराखंड की परंपरागत जागर शैली और आज की जागर विधा में बहुत अंतर आ गया है। पहले के समय में हर कार्य अपनी-अपनी परंपरागत जिम्मेदारी और मर्यादा के अनुसार किया जाता था। जैसे—
चत्री का काम चत्री करता था,
ब्राह्मण अपना कार्य करता था,
सूत्र का काम सूत्र निभाता था,
वैश्य अपने क्षेत्र में कार्यरत थे।
लेकिन आज समय और परिस्थितियाँ बदल गई हैं। समानता के अधिकार के कारण हर व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के लिए स्वतंत्र है—यह अच्छी बात भी है। परंतु, गुरु-परंपरा की जो मूल विधि थी, वह अलग ही गरिमा रखती थी।
पहले समय में जो गुरु गद्दी पर विराजमान होता था, वही “दास” होता था, और उसी दास पर गुरु अवतरित माने जाते थे। यही दास विभिन्न क्षेत्रों में जाकर देवी–देवताओं के विधि-विधान, वचनों और प्रक्रियाओं का संचालन करता था। उस विद्या में मर्यादा, अनुशासन और कठोर तपस्या जुड़ी होती थी। लेकिन आज के समय में कई स्थानों पर लोग उस पारंपरिक प्रक्रिया को सही ढंग से समझे बिना, केवल मनोरंजन के लिए भी जागर का प्रयोग कर रहे हैं। किसी को पकड़कर कहीं भी बजा देना या पैसे देकर अपनी सुविधा के अनुसार जागर कराना—यह परंपरा की गंभीरता और पवित्रता से खिलवाड़ जैसा लगता है।
पहले जब भी जागर लगती थी, और यदि बहुत तेज़ हो जाती थी, तो लोग पूजा करवाकर उसकी गति को शांत कराते थे। पूरी प्रक्रिया नियम के साथ होती थी। आज राजनीतिक, निजी या मनोरंजन के कारण जागर का प्रयोग बढ़ रहा है, जो परंपरा की मूल आत्मा से काफी अलग है।
इसी कारण मेरा अपना स्पष्ट मानना है कि पहले की जागर विधा और आज की जागर विधा में गहरा अंतर आ चुका है। पहले सम्मान, मर्यादा और विधि प्रमुख थी—आज कई जगह उद्देश्य और भाव बदल गए हैं।
प्रश्न 4: क्या उत्तराखंड के कुल देवी देवताओं को शहरों में स्थापित करना उचित है? आजकल इसका तेजी से चलन बढ़ गया है। आप इसे किस दृष्टिकोण से देखते हैं?
उत्तर:- देखिए, उत्तराखंड के देवी–देवता हमारे लिए केवल धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि हमारे परिवार के सदस्य हैं। चाहे हम पहाड़ में हों, मैदान में हों या विदेश में—हमारे इष्ट हमेशा हमारी रक्षा के लिए हमारे साथ होते हैं। इसलिए शहरों में उन्हें स्थापित करना सिद्धांत रूप से गलत नहीं है, लेकिन कुछ बहुत महत्वपूर्ण शर्तें जुड़ी हैं।
सबसे पहले,अगर हम अपने इष्ट को शहर में उसी विधि-विधान, उसी मर्यादा और उसी पहाड़ी परंपरा के साथ स्थापित कर सकते हैं, जैसे पहाड़ में होता है— तभी यह उचित माना जा सकता है।
इसमें शामिल है:
Jagra डोर लगाना
जागर की विधि का पालन
नित्य कर्म और पूजन
बोल-भाषा और पूरी सांस्कृतिक प्रक्रिया का सम्मान
अगर इन सबको निभाया जा सकता है, तो शहर में स्थापना पूरी तरह स्वीकार्य है। लेकिन अगर केवल रूझान, दिखावा या आधुनिक ट्रेंड के कारण हम देवी–देवताओं की परंपरा को बदल दें, तो यह मेरे अनुसार उचित नहीं है।
उत्तराखंड की स्थानीय देव परंपरा में बिना आवश्यकता के
या बिना विधि जाने मूर्तियाँ या अन्य स्वरूप बनाना कभी भी परंपरा का हिस्सा नहीं रहा है। आज “देखा–देखी” में जो कुछ हो रहा है, मैं उसका स्पष्ट रूप से विरोध करता हूँ।
मेरी दृष्टि में: यदि आप अपने देवी–देवताओं की सेवा पहाड़ जैसी परंपरा में शहर में कर सकते हैं, तो यह ठीक है;
लेकिन अगर विधि-विधान नहीं निभा सकते, तो अपने इष्ट को घर से बाहर ले जाना उचित नहीं है।
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प्रश्न 5: भविष्य में क्या जागर विधा पूर्ण रूप से विलुप्त हो जाएगी या फिर आधुनिक समाज में भी इसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी?? इस पर आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:- सच कहूँ तो अगर वर्तमान स्थिति ऐसी ही चलती रही, तो पारंपरिक जागर विधा विलुप्त होने की कगार पर पहुँच सकती है। क्योंकि आज जो “जागर” हम YouTube या सोशल मीडिया पर देखते हैं, लोग उसी को असली मानकर अपने घरों में बुला लेते हैं। जबकि मूल परंपरा बिल्कुल अलग थी। हमारे यहाँ नियम था कि जब घर में जागर लगती थी, तो अपने कुल-गुरु को ही बुलाया जाता था। वही गुरु पीढ़ियों से उस घर की परंपरा निभाते आए होते थे।
गुरु बदलने का भी एक निश्चित नियम और विधि थी—जो बहुत गहरी और पवित्र मानी जाती थी। लेकिन आज के समय में ये सब मान्यताएँ टूट रही हैं। अब कोई भी कहीं से किसी गुरु को बुला ले रहा है, और कई गुरु भी सिर्फ जागर लगाने और कमाई के नजरिए से काम कर रहे हैं। उन्हें पुराने नियम, वंशानुगत विधि या परंपरा की गहराई का पूरा ज्ञान नहीं होता।
यही कारण है कि मैं मानता हूँ— अगर यही तेज़ी से चलता रहा, तो घरों की अपनी-अपनी पारंपरिक जागर विधा धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। परंपरा का स्वरूप बदलेगा नहीं—सीधे-सीधे खो जाएगा। जागर की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी पहले थी, लेकिन प्रासंगिकता तभी बनी रहेगी जब परंपरा में “भाव” और “विधि” दोनों का सम्मान किया जाए।
अगर नियम, कुल-परंपरा और गुरु-विधि को छोड़कर केवल प्रदर्शन और मनोरंजन बचा रहेगा, तो जागर का मूल स्वरूप भविष्य में कमज़ोर पड़ जाएगा।
हेम चंद अपने ऑफिशल यूट्यूब चैनल हेम छू पहाड़ी के माध्यम से भी जागर विधा, एवं देवी देवताओं से संबंधित वीडियो साझा करते हैं।
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