उतरैणी- घुघुतिया: उत्तराखंड लोक संस्कृति को संजोए रखने के साथ ही बचपन की यादों से भी जुड़ा है यह त्यौहार (Ghughuti Tyohar)…
आज मकर संक्रांति है, सूर्य के उत्तरायन होने पर आने वाले इस पावन पर्व का हिंदू धर्म में खासा महत्व है। जी हां.. आप बिल्कुल सही समझे हम उसी त्योहार की बात कर रहे जिसे हमारी कुमाऊंनी में घुघुतिया त्यार (Ghughuti Tyohar) या उतरैणी के नाम से मनाया जाता है। खजूरे, घुघती की माला बनाई जाती है और सुबह सवेरे चिड़ियों की चहचहाहट के साथ बड़े ही मीठे स्वर में ‘काले कौवा काले, घुघुती माला खाले’ बोलते नन्हे मुन्ने बच्चों की मनमोहक आवाज पूरे दिन को तरोताजा कर देती है। इस दौरान बच्चे जहां आनंदित नजर आते हैं वहीं बड़े-बूढों की अपने बचपन के दिनों की यादें ताजा होने लगती है। लेकिन अब एक बात की कसक भी उनके दिल में उभर ही आती है। बेशक समय बदलने का उन्हें उतना दुःख न होता हों परन्तु बदलते समय का जितना प्रभाव हमारे तीज-त्योहारों पर पड़ रहा है उससे वे हमेशा दुखी ही रहते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि अब पहाड़ के लोकपर्वों में भी वो रसभरी मिठास नहीं रही जो 21वीं सदी के शुरुआती दशक तक देखने को मिलती थीं और हां.. बीसवीं सदी में त्योहार के दिनों की तो बात ही कुछ और थी।
(Ghughuti Tyohar)
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आज उत्तरायणी पर एकाध बच्चों की मंद-मंद आवाज सुनते हुए जब बचपन की यादें ताजा हो गई तो अचानक एक ख्याल आया कि क्यों ना आप सभी को बचपन की उन खट्टी-मीठी यादों में ले चलें जब घुघुतिया त्यार के दिन घर में रौनक हुआ करती थी। सुबह जब कौवों को घुघुति, खजूरे, दाने, बड़े, और न जाने क्या क्या, कितने ही आकार-प्रकार के पकवान खिलाने के लिए जब हम बुलाते थे तो ऐसा लगता था जैसे गांव में कौतिक ही लग गया हों। तो आइए अब आपको ले चलते हैं बचपन की उन भीनी यादों में। बात मासान्त के दिन से शुरू करते हैं। पौष (पूस) माह के अंतिम दिन (कहीं कहीं माघ मास के पहले दिन/ सरयू वार/ सरयू पार के हिसाब से) सुबह से ही चहल-पहल रहती थी। हम बच्चे जहां घुघुतिया खाने के लिए, कौवों को खिलाने के लिए बेताब रहते थे वहीं घर के बड़े बुजुर्गो को सुबह से ही त्योहार बनाने की चिंता रहती थी। वो दिन का खाना खाने के बाद ही शाम की तैयारियों में जुट जाते थे। धूप छिपने से पहले ही सगड़ तैयार किया जाता ताकि सारा काम निपटाने तक उसमें गर्मी रहें, जिससे ना तो तलने से पहले घुघुते सूखे ना ही परिवार के सदस्यों को कड़कड़ाती ठंड महसूस हों।
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फिर आता आटा गूंथने का नंबर, उन दिनों इसमें भी काफी मेहनत लगती थी क्योंकि तब आजकल की तरह रिफाइंड हर घर में उपलब्ध नहीं होता था। वो गरीबी का दौर ही कुछ ऐसा था, आज जहां मंडुवे की रोटी सेहत के लिए जरूरी बताई जा रही है और अमीर लोग भी हंसी खुशी इसका लुत्फ उठा रहे हैं इसके विपरित उन दिनों यह गरीबी की परिचायक थी। गेहूं की रोटी के लिए हम तरसते थे। पूरी-पकवानों की बात तो छोड़िए साहब जिस दिन गेहूं की रोटी भी मिल जाए वो दिन भी हमारे लिए किसी त्यौहार से कम नहीं होता था। खैर छोड़िए इन बातों को, हम आपको घुघुतिया त्यार के आटे के बारे में बता रहे थे। आटा गूंथने के लिए घी और डालडा का प्रयोग किया जाता और इस बात का विशेष ध्यान रखना होता कि आटा न तो इतना सख्त गॅूथा हो कि वह घुघुते बनाने में टूट जाए और न इतना गीला हो कि तलने पर घुघुते कड़कड़े हो जायें अथवा तलने से पूर्व ही आपस में चिपकने लगें। मीठापन लाने के लिए गुड़ का प्रयोग किया जाता। इसके लिए किसी पतेली में गुड़ का पाग बनाया जाता।
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आटा गूंथ जाने के बाद अब आती थी घुघते बनाने की बारी। घर के सभी सदस्य सगड़ के चारों ओर बैठकर एक साथ इधर-उधर की गप्पे मारते हुए न केवल घुघुते बनाते और थालियों में उन्हें सजाकर रख देते बल्कि हम बच्चों को खुश करने के लिए इन आटे से अलग-अलग आकार-प्रकार के व्यंजन बनाए जाते। खजूरे, दाड़िम, डमरू, तलवार, अनार और न जाने क्या क्या, अब तो उनमें से बहुत सी चीजों के नाम ही याद नहीं। तब तक रसोई में खाना भी तैयार हो जाता। खाना खाने के बाद थाली में सजे इन घुघुते आदि व्यंजनों को तलने का नंबर आता। हम बच्चे भी घुघुते खाने को मिल जाए इसी आस में तब तक जगे रहते जब तक कढ़ाई से आखिरी घान (व्यंजन की अंतिम मात्रा जो कढ़ाई में डाली गई हो) न निकल जाए। घुघुते बनते देख जैसे नींद तो कहीं छूमंतर ही हो जाने वाली ठैरी। बड़े-बुजुर्ग भी हमारी जिद का मान रखते और गाय, कौवों व घर के मन्दिर के हिस्से के घुघुते अलग निकालकर ताजे ताजे घुघुते हम बच्चों को खाने को दे देते।
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अब घघुती की माला बनाई जाती, जिसमें विभिन्न आकार प्रकार के व्यंजन दाड़िम, अनार, डमरू आदि काफी सुस्सजित लगते। माला बनाने के लिए ग्यारह, इक्कीस आदि शुभ अंकों के घुघुते प्रयोग किए जाते। सुबह उठते ही बिना हाथ मुंह धोएं उन मालाओं को पहनकर हम भी दौड़ पड़ते कौवों को बुलाने के लिए। उन दिनों एक दो बार ‘काले कौआ काले, घुघुती माला खा ले’ की आवाज सुनकर कौंवे आ भी जाते। अब न तो इतनी अधिक संख्या में बच्चों की वो मीठी-मीठी आवाजें सुनाई देती है और ना ही घुघुतिया त्यार के दिन कौंवे ही उतनी अधिक संख्या में दिखाई देते हैं। सच कहें तो पहाड़ की इस लोकपर्व घुघुतिया की मिठास तो चिड़ियों की चहचहाहट के साथ सुबह सुबह होने वाले बच्चों के उस कलरव में ही झलकती थी। अब तो यह बस होली-दीवाली की तरह मात्र एक त्योहार बनकर रह गया है। जिसमें न तो उतनी रौनक आती है और ना ही उतना मजा क्योंकि बच्चों के कलरव के बिना तो हमारा यह त्योहार अधूरा सा ही लगता है।
(Ghughuti Tyohar)