लोकगायिका संगीता ढौंडियाल का “रे मालू” गीत भी हुआ हिट,…. अब तक 3 लाख व्यूज पार…
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लोकगायिका संगीता ढौंडियाल एक ऐसा नाम जिन्होंने पहाड़ की संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने में काफी मदद की है। नए पहाड़ी गाने हों या फिर पुराने गीतों को नए रूप, सुर और धुन से प्रस्तुत करना, इन सभी में लोकगायिका संगीता ढौंडियाल को जैसे महारत ही हासिल हो। यही कारण है कि उनके गीतों को पहाड़ी समाज के सभी वर्गों द्वारा काफी सराहा भी जाता है और इसी कारण वह पहाड़ की एक लोकप्रिय गायिका के रूप में भी उभरी है। तमाम प्राचीन गीतों को खुद अपने शब्दों में पिरोकर पुनर्जीवन दें चुकी लोकगायिका संगीता ढौंडियाल एक बार फिर चमोली के एक पारम्परिक चांचरी गीत ‘रे मालू’ को लेकर आई है। सबसे खास बात तो यह है कि संगीता के पिछले गीतों की तरह ही यह गीत भी लोगों के दिलों को खूब पसंद आ रहा है। इस गीत की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस गीत को अभी तक 3 लाख से अधिक लोगों द्वारा देखा जा चुका है।
देवभूमि दर्शन से हुई खास बातचीत में संगीता बताती है कि एक पहाड़ी गायिका के रूप में उनका काम केवल नए गानों को लोगों के बीच लाना ही नहीं है बल्कि आम जनमानस के जीवन से लगभग विलुप्त हो चुके पुराने गीतों को आजकल की जनरेशन के हिसाब से नए रूप में गीत-संगीत देकर दर्शको के सामने लाना भी हमारा परम कर्तव्य है ताकि नए गीतों के साथ-साथ पुराने गीत भी लोगों की जुबां पर आते रहे। संगीता आगे कहती है कि पुराने गानों को नया रंग, रूप एवं गीत-संगीत देकर ही विलुप्त होने से बचाया जा सकता है। उनका यह गीत भी चमोली के प्राचीन जनमानस की कहानी को दिखाता है, जिसमें बेटी, प्राचीन समय के टूटे-फूटे रास्तों से भरें हुए ऊंचाई पर स्थित एक गांव की बात बताते हुए अपने पिता से कहती हैं कि मुझे उतनी दूर शादी करके नहीं जाना। वहां पहले तो नौ कोस की उतराई है और फिर उतनी ही ज्यादा चढ़ाई भी है। उस गांव को पराया मुल्क संबोधित करते हुए बेटी कहती हैं कि वहां तो ढंग के रास्ते भी नहीं है और उबड़-खाबड़ रास्तों पर इतना पैदल चलने पर मेरे पांव भी थकेंगे, और तो और वहां तो कौए भी नहीं बसते है। वहां के लोग रूखा-सूखा खाते है और भांग के रेशों से बने हुए कपड़े पहनते हैं, वहां मुझे बहुत उदास भी लगेगा इसलिए मुझे उस पराए मुल्क में नहीं जाना।
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