Uttarakhand Bhitauli Tradition: उत्तराखंड भिटौली लोक परंपरा है विवाहित महिलाओं को समर्पित जानिए इससे जुड़ी लोककथा
उत्तराखंड का कुमाऊं मंडल तथा गढ़वाल मंडल दोनों ही अपनी अलग-अलग परंपराओं को लेकर प्रचलित है। ऐसे कई त्योहार एवं परंपराएं हैं जो सिर्फ उत्तराखंड की पहाड़ी क्षेत्रों में ही मनाए जाते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में चैत के महीने में मनाया जाने वाली भिटौली एक विशिष्ट परंपरा है जो विशेषकर भाई बहन के प्यार का प्रतीक है और विवाहित महिलाओं को समर्पित है। आइए हम आपको बताते हैं की भिटौली क्या है? और इतनी खास क्यों है उत्तराखंड की विवाहित लड़की एवं महिलाओं के लिए? सबसे पहले हम आपको बताते हैं कि भिटौली क्या होता है? भिटौली का अर्थ भेंट देना या भेंट करना होता है इस दिन ससुराल में महिलाएं अपने मायके से भाई या पिता के आने का बेसब्री से इंतजार करती हैं। इस दिन मायके से पिता या भाई अपनी बहन या बेटी के लिए पकवान, मिठाई एवं वस्त्र लेकर आते हैं। जिसे भिटौली कहा जाता है। बता दें कि नव विवाहित महिला को पहली भिटौली माघ के महीने में दी जाती है क्योंकि चैत का महीना पहाड़ी क्षेत्रों में काला महीना माना जाता है इसलिए इस महीने में कोई भी शुभ कार्य शुरू नहीं किया जाता है। मायके से आई भिटौली को महिलाएं अपने आस पड़ोस में भी बांटती हैं। (Uttarakhand Bhitauli Tradition)
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क्या है भिटौली का महत्व और कब मनाया जाता है?
बसंत ऋतु के आते ही चैत महीने की संक्रांति फूलदेई के दिन से ही बहनों को भिटौली या भिटोई देने का सिलसिला शुरू हो जाता है। भिटौली में मायके से कई प्रकार के व्यंजन जैसे की खजूर, सेई, पूरी ,बड़े मिठाई आदि अपनी बहन या बेटी के लिए उनके ससुराल टोकरी में रखकर ले जाया जाता था। भिटौली बहुत ही पुरानी परंपरा है इसके पीछे एक कहानी भी है जिसके बारे में हम आपको अवगत कराने जा रहे हैं।
उत्तराखंड के कई गांवो में आज भी बड़े- बूढ़े इस कहानी को शौक से सुनाते हैं। खासकर इस भिटौली के महीने में। भिटौली की कहानी भाई बहन के प्यार से जुड़ी हुई है।कहा जाता है कि देबुली नाम की एक महिला अपने भाई नरिया से बहुत ही प्यार करती थी। फिर देबुली की शादी दूसरे गांव में हो गई। शादी के बाद चैत के महीना लगते ही देबुली अपने भाई नरिया का इंतजार करने लगी। देवली बिना कुछ खाए-पिए व बिना सोए अपने भाई नरिया इंतजार करने लगी। इंतजार करते करते ऐसे ही कई दिन बीत गए।लेकिन उसका भाई नरिया किसी काम की वजह से नहीं आ पाया। 1 दिन नरिया जब अपनी बहन के घर भिटौली लेकर आया तो बहन के घर पहुंचते-पहुंचते उसे रात हो गई। जब वह अपनी बहन के घर पहुंचा तो देखा कि उसकी बहन देबुली सोई हुई है तो उसने अपनी बहन को सोता देख भिटौली की टोकरी उसके पैरों के पास रख दी ,क्योंकि अगले दिन शनिवार था तो वह अपनी बहन को सोता हुआ ही प्रणाम करके वहां से चला गया। पहाड़ों में शनिवार के दिन किसी के घर जाना अपशकुन माना जाता है इसलिए नरिया अपनी बहन के घर से बिना कुछ खाए पिए ही चला गया। जब देबुली की आंखें खुली तो उसने भिटौली को अपने पैरों के पास रखा हुआ पाया। देबुली को एहसास हुआ कि जब वह सोई हुई थी तो उसका भाई भिटौली रखकर उससे बिना मिले भूखे प्यासे ही वापस लौट गया। इस वजह से देबुली बहुत ही ज्यादा दुखी हुई और एक ही रट लगाए रही कि….
भै भूखो- मैं सिती, भै भूखो- मैं सिती”
यह बोलते बोलते देबुली ने अपने प्राण त्याग दिए। कहा जाता है कि देबुली का जन्म न्योली (एक पक्षी) के रूप में हुआ जो चैत के महीने में बोलती है की भै भूखो- मैं सिती, भै भूखो- मैं सिती
भिटौली के लिए स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी द्वारा एक बहुत ही सुंदर गीत लिखा गया है
“बाटी लागी बारात चेली ,बैठ डोली मे,
बाबु की लाडली चेली,बैठ डोली मे
तेरो बाजू भिटोयी आला, बैठ डोली मे”
धीरे धीरे उत्तराखंड की है संस्कृति और परंपरा खत्म होती जा रही है अब पहले की तरह भिटौली देने की परंपरा समाप्त होती जा रही है। इसका कारण पहाड़ों से पलायन भी है अब भिटौली मात्र इस महीने में शहरों में रह रही माताओं और बहनों को पैसे भेज कर मनाया जा रहा है।
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