उत्तराखण्ड की मशहूर लोकगायिका कबूतरी देवी के गीत को दी थी स्वर्गीय पप्पू कार्की ने अपनी आवाज
आज हमारे बीच उत्तराखण्ड के दोनों कलाकार नहीं रहे जिन्होंने उत्तराखण्ड के लोकगीत ओर संस्कृति को एक नयी पहचान ओर दिशा दी थी, इन्ही महान कलाकारों की वजह से उत्तराखण्ड के संगीत को अपनी पहचान मिली जिसमे से कुमाऊं क्षेत्र के संगीत की दुनिया पर विशेष प्रभाव पड़ा। कुमाऊं संगीत क्षेत्र में इनका योगदान हमेशा यादगार रहेगा औऱ इनके गीत हमेशा अमर रहेंगे।
स्वर्गीय कबूतरी देवी: आज पनि जौं-जौं, भोल पनि जौं-जौं…’ गीत से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान पाने वालीं उत्तराखंड की मशहूर लोकगायिका कबूतरी देवी का हाल ही में निधन हुआ था। बता दे की कबूतरी के इस गीत को दुनिया भर में फैले उत्तराखंड के प्रवासियों के अलावा नेपाल में भी खूब प्यार मिला। कबूतरी का जन्म 1945 में काली-कुमाऊं (चम्पावत जिले) के एक मिरासी (लोक गायक) परिवार् में हुआ था। संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने गांव के देब राम और देवकी देवी और अपने पिता श्री रामकाली जी से ली, जो उस समय के एक प्रख्यात लोक गायक थे। वैसे वो मूल रुप से सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के मूनाकोट ब्लाक के क्वीतड़ गांव की निवासी थीं, वह उत्तराखंड की तीजनबाई के नाम से मशहूर थीं। हारमोनियम पर जब उनकी उंगलियां चलती थीं तो आवाज खुद ही हवाओं से सुर पकड़ लेती थी। कबूतरी ने 1970 और 80 के दशक में आकाशवाणी नजीबाबाद, रामपुर, लखनऊ और मुंबई के विभिन्न भाषा के कार्यक्रमों में गायन किया. लखनऊ दूरदर्शन केंद्र से भी उनके गायन का प्रसारण हुआ. उनकी दर्जन भर से ज्यादा रिकॉर्डिंग ऑल इंडिया रेडियो के पास हैं. इसके अलावा उन्होंने क्षेत्रीय त्योहारों, रामलीलाओं, उत्तरायणी पर्वों जैसे कई मंचों पर भी गायन किया, जिसे शायद ही संरक्षित किया गया हो। कबूतरी देवी का एक लोकप्रिय गीत गीत जो हर किसी की जुंबा पर आता है, वो है “पहाड़ो ठंडो पानी सुन कैसी मीठी वाणी छोड़नी नई लागेनी “
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स्वर्गीय पप्पू कार्की: उत्तराखण्ड के लोकगीतो की बात करे तो स्व.पप्पू कार्की का नाम सबकी जुबा पर रहता है, जिन्होंने उत्तराखण्ड के लोकगीतों को एक नयी उचाई पर पहुंचाया था, आज भी उनकी अमर आवाज सबके दिलो में जीवित है। स्व. पप्पू कार्की ने अपनी जादुई आवाज से सबके दिलो में अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। जब 9 जून 2018 को यह महान लोकगायक अपनी आवाज देकर अलविदा कह गया तो पहाड़ो में एक शोक की लहर दौड़ गयी थी।
स्व. पप्पू कार्की के जिंदगी का संघर्ष – स्व. पप्पू कार्की ने उत्तराखण्ड के लोकसंगीत में जो मुकाम पाया था, उसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की थी अपने गॉव थल (पिथौरागढ़) से दिल्ली नौकरी की तलाश में भटकते रहे और यहाँ तक की उन्होंने पट्रोल पंप और प्रिंटिंग प्रेस में भी काम किया लेकिन उनका मन शहरो में नहीं लगा क्योकि अपने उत्तराखण्ड के लोकगीतों को एक नए मुकाम पर पहुंचाने के लिए उन्हें अपने पहाड़ वापस आना ही पड़ा और जहा उन्होंने संगीत के क्षेत्र में काम करना शुरु किया तो उपलब्धियां उनके कदम चूमने लगी और इसी के चलते हल्द्वानी में उन्होंने अपना पीके स्टूडियो खोला। लेकिन ऊपर वाले को शायद कुछ और ही मंजूर था जो वो अपनी अमर आवाज देकर सबको अलविदा कह गए। 1998 में पप्पू कार्की ने अपना पहला गीत अपने गुरु, कृष्ण सिंह कार्की की जुगलबंदी में रिकार्ड किया था यह गीत उनकी एलबम ‘फौज की नौकरी में’ का था। इसके बाद 2002 में उन्होंने एक अन्य एलबम ‘हरियो रूमाला’ में भी गीत गाए।
स्वर्गीय पप्पू कार्की ने अपनी आवाज से पुरे उत्तराखण्ड के लोगो के दिलो में एक विशेष जगह बनाई ही साथ में उन्होंने उत्तराखण्ड की प्रसिद्द लोकगायिका के गीत ” पहाड़ो ठंडो पानी सुन कैसी मीठी वाणी छोड़नी नई लागेनी ” को भी अपनी आवाज दी।
