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Harela festival 2023 date

HARELA

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Harela festival 2023 date: उत्तराखंड लोकपर्व हरेला त्यौहार 2023 कब मनाया जाएगा?

Harela Festival 2023 date: जल्द ही उत्तराखंड में श्रावण मास शुरू होने वाला है इस समय उत्तराखंड में चारों ओर प्रकृति का सुंदर नजारा देखने को मिलता है हर तरफ धरती पर हरियाली छाई रहती है तब प्रकृति के इस अद्भुत छटा के बीच शुरू होता है उत्तराखंड का महत्वपूर्ण लोक पर्व 

(Harela Festival 2023 date)

“हरेला” उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल एवं कुमाऊँ क्षेत्र में मनाए जाने वाला एक महत्वपूर्ण कृषि पर्व है जो किसानों द्वारा अपनी फसलों की अच्छी पैदावार की कामना के साथ ही घर में  सुख शांति एवं खुशहाली का प्रतीक है। यह प्रकृति और मनुष्य के बीच अटूट बंधन को दर्शाती है।
कब मनाया जाता है हरेला (When is Harela celebrated?)
हरेला प्रत्येक वर्ष कर्क सक्रांति को श्रावण महीने के पहले दिन मनाया जाता है यह चन्द्र की चाल पर निर्भर ना होकर पृथ्वी से सूरज की दिशा पर निर्भर करता है इसलिए यह हर साल 16 एवं 17 जुलाई को मनाया जाता है । इस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है इसलिए इसे कर्क सक्रांति भी कहा जाता है।

किस दिन और कैसे मनाया जाएगा साल 2023 में हरेला पर्व: हरेला हर साल श्रावण मास के कर्क सक्रांति के दिन ही मनाया जाता है इसलिए हर साल की भांति इस साल भी यह त्यौहार 16 एवं 17 जुलाई को मनाया जाएगा। जाने माने पंडितों के मुताबिक इस साल सूर्या 16 जुलाई को 4:59 बजे कर्क राशि में प्रवेश करेगा जिस कारण यह त्यौहार उत्तराखंड में 16 जुलाई को मनाया जाएगा। जैसा कि इस बात से सभी विदित हैं कि उत्तराखंड राज्य का कैलेंडर शहरी राज्यों से थोड़ा अलग प्रकार का होता है। राज्य का महीना शहरी राज्यों के महीनों से पीछे चलता है जिसके चलते त्योहारों के दिनों में भी फेरबदल देखने को मिलता है। इसी कारण हरेला त्यौहार उत्तराखंड में 2 दिन 16 एवं 17 को मनाया जाता है। इस बार भी दिनों के फेरबदल के कारण कुमाऊं क्षेत्र में यह त्योहार 17 जुलाई एवं गढ़वाल क्षेत्र के कुछ हिस्सों में यह त्यौहार 16 जुलाई को मनाया जाएगा। जैसा कि पारंपारिक रीति-रिवाजों के मुताबिक हरेला त्यौहार में हरेला बोने की परंपरा है जिसे 10 एवं 11 दिन पहले एक पात्र में बोया जाता है। तो यदि आपके घर में हरेला बोने की परंपरा 10 दिन की है और यह आपके इलाके में 16 तारीख को मनाया जा रहा है तो आप 7 जुलाई को हरेला बोएंगे और यदि आपके यहां हरेला 11 दिन मनाने की परंपरा है तो आप 16 जुलाई से 11 दिन पहले यानी 6 जुलाई को हरेला बोएंगे। वहीं यदि आपके क्षेत्र में इस बार हरेला 17 जुलाई को मनाया जा रहा है तो आप हरेला काटने से 10 दिन पहले यानी कि 8 जुलाई को हरेला बोएंगे वही यदि आपके यहां 11 दिन का हरेला मनाया जाता है तो आप हरेला काटने के दिन से 11 दिन पहले यानी कि 7 जुलाई को हरेला बोएंगे। इस प्रकार आप दिनों के हिसाब से हरेला बो सकते हो। (Harela Festival 2023 Date)Harela festival 2023 date

हरेला क्या है और यह क्यों और कैसे मनाया जाता है? (What is Harela and why and how is it celebrated) “हरेला” का शाब्दिक अर्थ “हरियाली” से होता है जिसे समय चारों ओर प्रकृति में हरियाली छाई रहती है तब यह त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार गढ़वाल एवं कुमाऊं क्षेत्र में कृषकों द्वारा कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती के साथ ही उनके परिवार श्री गणेश और कार्तिकेय जी की पूजा की जाती है और सभी लोगों द्वारा उनसे अपने परिवार की खुशहाली की कामनाएं की जाती है। कुमाऊं क्षेत्र में इस पर्व को खूब धूमधाम और प्रमुखता से मनाया जाता है इसके लिए कई इलाकों में हरेला के समय हरेला मेला भी लगता है। मगर गढ़वाल क्षेत्र में यह त्यौहार कहीं-कहीं पर ही मनाया जाता है। इस पर्व को किसानों द्वारा प्रकृति में ऋतु परिवर्तन से फसलों में भी खासा परिवर्तन की खुशी में मनाया जाता है। यह त्यौहार वैसे तो उत्तराखंड में वर्ष भर में 3 बार मनाया जाता है जिसमें पहला त्यौहार चैत्र मास में, दूसरा श्रावण मास में, और तीसरा आश्विन महीने में शरद नवरात्रि के दौरान मनाया जाता है। लेकिन इन सब में सबसे अधिक महत्व सावन मास के हरेला का होता है और इसे सम्पूर्ण उत्तराखंड में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

कुमाऊं क्षेत्र में 17 जुलाई को मनाया जाएगा हरेला:
हरेला पर्व में हरेला बोने और उसे काटने की परंपरा है जिसके लिए सर्वप्रथम त्यौहार से 10 या 11 दिन पहले एक टोकरी या पात्र में मिट्टी भरकर उस मिट्टी में स्थानीय बीज जैसे गेहूं, जौ एवं धान को बो दिया जाता है। धान बोने के बाद इस टोकरी पर कलावा बांध कर घर के मंदिर में प्रकाश विहीन स्थान पर रखा जाता है जिसमें 10 11 दिन तक निरंतर पानी एवं दूध का छिड़काव किया जाता है। पात्र की रखवाली घर की मात्र शक्तियों एवं पुरोहितों द्वारा किया जाता है। धीरे-धीरे पात्र में धान के तिनके उगने लगते हैं तब नौवें दिन उगी हुई हरेला यानी कि धान की हल्की सी बुवाई की जाती है। इसी के साथ ही घर में पंडितों को बुलाकर भगवान भोलेनाथ के समस्त परिवार की पूजा की जाती है। 10 वे दिन उगी हुई हरेला यानी धान को काटकर सर्वप्रथम खीर पुरी एवम् पकोड़ी के साथ इसे भगवान या अपने इष्ट देव को चढ़ाया जाता है। उसके बाद परिवार की किसी बुजुर्ग एवं महिला द्वारा इसे घर के प्रत्येक सदस्य को आशीर्वाद स्वरुप भेंट की जाती है। आशीर्वाद के रूप में मिला हरेला को कान के पीछे या सर पर रखा जाता है। हरेला को देते समय बुजुर्ग द्वारा एक खास प्रकार का लोकगीत “जी रया,जागि रया,यो दिन बार, भेटने रया,दुबक जस जड़ है जो, पात जस पौल हैजो” गुनगुनाए जाता है जिसका की काफी खास महत्व है । मान्यता यह है कि जितना अच्छा हरेला पात्र में उगेगा उतना ही अच्छी फसल और खुशहाली घर में उस साल होगी। हरेला काटते समय सभी लोगों द्वारा भगवान भोलेनाथ से उनकी परिवार की कुशल कामनाएं एवं फसलों में अच्छी पैदावार और लालिमा की कामना की जाती है।

यह भी पढ़िए: हरियाली और ऋतु परिवर्तन का प्रतीक….”उत्तराखण्ड के लोक पर्व हरेला का महत्व

कुमाऊनी क्षेत्र में इस त्यौहार को बड़े ही मान्यता एवं प्रमुखता से मनाया जाता है। संपूर्ण कुमाऊं में इस दिन हरेला से सम्बंधित सभी देवी देवताओं का ध्यान किया जाता है और तरह तरह के पकवान खीर पकोड़ी, पूरी बनाए जाते हैं ।इस दिन जो कोई भी कुमाऊनी प्रवासी जहां कहीं भी हो वह घर पहुंचता है अगर किसी कारण कोई कुमाऊनी प्रवासी घर नहीं पहुंच पाता है तो उसे उनके घर के सदस्यों द्वारा अक्षत, पिटाई इत्यादि के साथ हरेला के तिनके भेजे जाते हैं। वहीं *गढ़वाल क्षेत्र* की बात करें तो गढ़वाल के कुछ इलाकों जैसे चमोली इत्यादि में उस दिन हरियाली देवी की पूजा की जाती है।जबकि अन्य इलाकों जैसे पौड़ी, टिहरी, इत्यादि में हरेला के दिन हरेला के तिनके घरों के दरवाजे के ऊपर गोबर के साथ चिपकाने की परंपरा है। इस दिन दूध से बनी चीजें अपने भूमियाल देवता को चढ़ाने के साथ ही फसलों और परिवार के सदस्यों पर देवी-देवताओं का सौभाग्य और कृपा बनी रहे की कामना की जाती है। हरेला काटने के अगले दिन से खेतों में बुवाई शुरू कर दी जाती है। तो यह था उत्तराखंड राज्य में मनाया जाने वाला मुख्य त्यौहारों में शामिल हरेला पर्व, जो प्रकृति और मनुष्य के बीच गहरा बंधन और प्रेम को दर्शाता है। जो किसानों के मन में प्रकृति और अपने ईष्ट के लिए गहरा विश्वास को प्रदर्शित करता है।

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