उत्तराखंड- तीलू रौतेली सम्मान से सम्मानित बबीता रावत ने पहाड़ में ऐसे जगाई स्वरोजगार की अलख
By
बहुत ही प्रेरणादायक है हाल ही में तीलू रौतेली (Teelu Rauteli) सम्मान से नवाजी गई बबीता रावत (Babita Rawat)
के संघर्षों की कहानी, गांव में रहकर जगाई स्वरोजगार की अलख..
यह कहानी राज्य की उस संघर्षशील बेटी की है जिस पर बचपन में ही परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गई। हालात ने उसे महज 13 वर्ष की उम्र में अपने कोमल हाथों से खेतों में हल चलाने को मजबूर कर दिया लेकिन राज्य की इस बहादुर बेटी ने हिम्मत नहीं हारी, अपने कठिन परिश्रम के बलबूते उसने न सिर्फ परिवार का भरण-पोषण किया बल्कि अपने बीमार पिता का इलाज भी करवाया। इसके साथ ही उसने न सिर्फ अपनी पढ़ाई जारी रखी बल्कि अपने छोटे भाई-बहनो की पढ़ाई का सारा खर्च भी उठाया।
जी हां.. हम बात कर रहे हैं हाल ही में तीलू रौतेली सम्मान (Teelu Rauteli) से नवाजी गई बबीता रावत(Babita Rawat) की, जिन्होंने अपनी मेहनत, लगन और हिम्मत के बलबूते परिस्थितियों से लड़कर न सिर्फ पहाड़ में रहने वाले राज्य के अन्य युवाओं के लिए उदाहरण पेश किया है बल्कि स्वरोजगार की अलख भी जलाई है। बता दें कि राज्य के रूद्रप्रयाग जिले की रहने वाली बबीता रावत ने इस महामारी के दौर में भी मटर, भिंडी, शिमला मिर्च, बैंगन, गोबी सहित विभिन्न सब्जियों का उत्पादन कर आत्मनिर्भर उत्तराखण्ड की दिशा में भी अपने कदम बढ़ाए हैं।
इसके साथ ही बबीता मशरूम उत्पादन से भी अपनी आर्थिकी बढ़ाने में जुटी है और इससे उन्हें अच्छी कमाई भी हो रही है।
यह भी पढ़ें- उत्तराखंड: पहाड़ के युवा का स्वरोजगार की ओर नया कदम, बिच्छू घास से बनाई हर्बल टी
सुबह शाम करती थी घर और खेत में काम, दिन में पांच किलोमीटर दूर पैदल पढ़ने जाती, अब शाक-सब्जियों के साथ ही कर रही मशरूम उत्पादन:-
बताते चलें कि कि मूल रूप से राज्य के रूद्रप्रयाग जिले के सौड़ उमरेला गाँव की रहने वाली बबीता रावत (Babita Rawat) को हाल ही में तीलू रौतेली सम्मान (Teelu Rauteli) से सम्मानित किया गया है। सात भाई-बहनो में सबसे बड़ी बबीता के संघर्षों की कहानी उस समय से शुरू होती है जब वह मात्र 13 वर्ष की थी। बात 2009 की है, जब बबीता के पिता सुरेन्द्र सिंह रावत की तबीयत अचानक खराब हो गई। पिता का स्वास्थ्य खराब होने पर परिवार की सारी जिम्मेदारी बबीता पर आ गई।
जिसे उसने बखूबी निभाया। 13 साल की उम्र में उसने हल पकड़ा और अब तक अपने पिता द्वारा निभाई जा रही सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। बबीता सुबह शाम खेती-बाड़ी करती और दिन में गांव से पांच किलोमीटर दूर राजकीय इंटर कॉलेज रूद्रप्रयाग में पढ़ने पैदल जाती।
खेती के साथ-साथ वह दूध भी बेचती। जिससे बबीता के परिवार की आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे संभलने लगी। पढ़ाई पूरी करने के बाद बबीता ने अब आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाया है। पिछले दो वर्षों से वह सीमित संसाधनों के बावजूद मशरूम उत्पादन भी शुरू कर दिया है। वास्तव में बबीता के संघर्षों की कहानी उन सभी के लिए एक मिशाल है जो थोड़े से संकटों में परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं।
यह भी पढ़ें- उत्तराखण्ड की महिलाओं का स्वरोजगार की ओर नया कदम, अब बनाया लिंगुड़े का अचार